Book Title: Mahavir Jivan Me
Author(s): Manakchand Katariya
Publisher: Veer N G P Samiti

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Page 120
________________ ૧૬ अनेकान्त के बिना अहिंसा कितनी पंगु ! अहिंमा एक मुकाम पर आकर ठिठक गयी है। जितना चल पायी, उससे इतना अभ्यास अहिंसा-धर्मी को हआ कि वह जीव-हत्या से बचे। उसके हाथो से हथियार छुट रहे है और उसके पैर चीटिया बचा रहे है । मनुष्य को यह विश्वास आया कि उसका रास्ता हनन का नही है । मारकाट, हत्या, जोर-जबरदस्ती, लट, आगजनी, युद्ध आदि बर्बर तरीके है और ये सारे व्यवहार मानवोचित नहीं है। मासाहार से उसका चित्त हटता जा रहा है। उसने समझा कि आत्मा की ताकत शरीर की ताकत से अनन्त गुनी है । कम-से-कम, मनुष्य और मनुष्य के बीच का व्यवहार अहिसा का हो, यह भावना उसकी बनी है। जीव-दया वालो ने प्राणिजगत् के साथ भी अपना नेह जोडा है और उनकी करुणा सब जीवो तक पहुंची है। हिसा के उपकरण लेकिन अहिंसा की इस मजिल पर खडा मनुष्य जब अपने चारो ओर १०८ महावीर

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