Book Title: Mahavir Jivan Me
Author(s): Manakchand Katariya
Publisher: Veer N G P Samiti

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Page 126
________________ इसलिए उन्होंने हिंसा के पथिक को अनेकान्त की दृष्टि दी थी- एक ऐसा 'रडार' जो अहिंसा के जहाज का दिशादर्शक है, पर अहिंसा-धर्मी ने इस उपकरण को हाथ ही नही लगाया । और इस कारण वह अपने ही अहकार से नहीं बच पा रहा है । लाठी फेक दी है, बन्दूक को हाथ नहीं लगाता, जीव-हत्या से बचने के लिए उसने बहुत-बहुत उपाय खोज लिये हैं । पर अपने कुल जीवन-व्यवहार मे वह 'स्वार्थ' और 'अहकार' की वैसाखियो पर चल रहा है, और इस तरह अहिंसा एक मुकाम पर आकर ठिठक गयी है । हिंसा को गति चाहिए। ऐसी ऊर्जा जो उसके पंख खोल दे । मनुष्य के पास अनन्त करुणा है, पर वह बढती ही नही । उसके पास असीम प्रेम है, पर वह फैलता ही नही । वह क्षमा, सहिष्णुता, धैर्य, सयम, त्याग का स्वामी है, लेकिन उसका यह बहुमूल्य भण्डार बन्द है । खुले तो ऊर्जा प्रकट हो । अभी तो हम टकरा टकरा कर लौट आते हैं। मैं अपनी उधेडबुन में कुछ आपका तोड देता हूँ और आप अपनी ही झक में कुछ मेरा तोड देते हैं । हम 'ही' पर सवार हैं और सृष्टि 'भी' पर टिकी है। नयी पीढी सोचती है या हो गया ह पापा को समझते क्यो नही । बाजार मे कोई किसी को नही समझना चाहता -- सबको अपनी ही पडी है। राजनीति प्रजा का कोई अस्तित्व नही, जो कुछ है वह सत्ता ही है । और आगे बढिये तो एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को निगलने में लगा है । इस तरह एक पूरी श्रृंखला एक-दूसरे पर सवारी किये हुए है। महावीर का अनेकान्त कहता है उतरो, जिस पर सवारी करना चाहते हो उसका भी कुछ अस्तित्व है, वह भी किसी सत्य के दर्शन कर रहा है। समझो उसे । 'ही' के आग्रह बहुत ताकत - आजमाई की है और हिंसा को हजार-हजार पैर मिल गये है । 'भी' को यदि मनुष्य अपना ले तो वह हृदय को छुएगा । हम सबके हृदय एक-दूसरे के लिए खुल जाएँगे । अहिंसा घास की तरह बाहर मैदान मे तो नही उगती -- वह उगेगी तो मनुष्य के हृदय में ही उगेगी । इधर ११४ महावीर

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