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जिस अहिंसा को वह जी रहा है, अपर्याप्त है क्योकि वह उसके ही इर्दगिदं चल रही है। सारी सृष्टि को अपने प्यार में समेट लेने वाला जीवन मनुष्य तभी जो सकेगा, जबकि वह अपने अस्तित्व के बजाय 'सह-अस्तित्व' की बात सोचे और वैसा आचरण करे । सह-अस्तित्व के लिए जीवन बदलना होगा। लौट तो सकते नही--कोई यह कहे कि आप सारे कपडे फेंककर या तो दिगम्बर हो जाइये या वल्कल लपेट लीजिए तो वह सभव नही है। न यह सभव है कि आप अपनी रुचि के लजीज पदार्थ फेंककर कद-मूल पर टिक जाएँ। न यह ही सभव है कि ऊँचे भवनो से उतरकर आप धासफूस की झोपड़ी में चले जाएँ। उपभोग की अनन्त सामग्रियो मे से किस-किस को छोड सकेंगे? आज का मनुष्य न तो मिताहारी हो सकता है, न मितभाषी और न मितव्ययी-थोडे में उसका चलता ही नहीं । शायद अब हम पीछे नहीं लौटने की स्थिति (पॉइन्ट ऑफ नो रिटर्न) मे हैं। उपभोग की जिस मजिल पर खडे है वहा से ऐसी कोई छलाग नहीं लगायी जा सकती कि मनुष्य फिर से पाषाण युग मे लोट पडे । ___तो क्या जितना आत्मधर्म उसके हाथ लगा, अहिंमा के जितने डग उसने भरे, जितनी करुणा--जीव-दया उसने उपजायी वह सब समाप्त है ? और धरती अपने श्रेष्ठतम समझदार, गुण-सम्पन्न और आत्मबोधी प्राणी को सर्वाधिक खंखार घोषित कर सहार की बाट जोहेगी? बहुत गाढे समय-सकट की महाघडी मे दुनिया को महावीर की याद आयी है। उन्होने मनुष्य को जो अहिंसा-धर्म दिया वह केवल उसके निज के जीवन के लिए नहीं है, उसका सम्बन्ध पूरी सृष्टि से है। उसकी सास सुष्टि के सम्पूर्ण स्पन्दन से जुडी है। सृष्टि की यह धडकन हमे सुननी होगी । सह-अस्तित्व (को-एक्जिस्टेन्स) के अलावा मनुष्य के सामने कोई और गली (शार्टकट) नही है। एकमात्र यही रास्ता है
अहिंसा-धर्मी ने हिंसा से बचने के लिए अपने आसपास भक्ति, भोजन और भावना का जो कवच (खोल) रच लिया है उससे बाहर निकलकर उसे अपने सम्पूर्ण रहन-सहन, कारोबार, राज और समाज की परिपाटी, जीवन-व्यवहार और अपने उपभोग की तमाम वस्तुओ के साथ अहिंसा को जोडना होगा। इसके लिए महावीर ने एक ही कसोटी उसे थमायी है-सह-अस्तित्व ।
जीवन में ?
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