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'प्ले व्हाइल य प्ले, लन व्हाइल य लन' (खेल के समय खेलो, पढने के समय पहो।) यही हम कर रहे हैं-धर्म के समय धर्म, कर्म के समय कर्म। कर्म करते-करते धर्म-बसेरा पर पहुंच जाते हैं और दूसरी छलांग में सारा मनुष्यधर्म एक और फेंककर कर्म-ससार मे कूद पडते हैं । नतीजा हमारे सामने है-इस कवायत में मनुष्य बुरी तरह टूटा है। खडित हुआ है। छोडेगा नहीं वह अपने प्रभु को, टूट-टूट कर और जोर से अपने भगवान को पकडे हुए है। छीनिये उसका महावीर उससे, हाथ नहीं लगाने देगा। है कोई राम का भक्त जो अपना राम आपको दे दे। सब देवता ठंडी छाह में विराजमान है और बेचारा मनुष्य बाहर की तपन से तप-तप कर उनका आसरा ले रहा है।
मनुष्य ने जितना आत्मधर्म खोजा वह इस मुकाम पर आकर ठिठक गया है। लेकिन आत्मधर्म का सबध तो पूरे जीवन से है। जीवन दो टुकडो मे बाटा ही नही जा सकता-कर्म ससार अलग और धर्म-ससार अलग, यह सभव नही है । आत्म-धर्म टूट गया तो मनुष्य ही टूट गया। साबित इन्सान के लिए आत्म-धर्म पहली शर्त है । इस धुरी से अलग हटकर वह इन्सान ही नहीं रहता। वह धुरी क्या है, जिस पर मनुष्य को पूरे जीवन, प्रतिक्षण-प्रतिपल बने रहना है ? इस दृष्टि से सब धर्मों का यदि महत्तम निकाले तो पाच महावतो मे मनुष्य का सारा धर्म परिभाषित हो गया हैअहिंसा, सत्य, अचौर्य, शील और अपरिग्रह । अब ये ऐसे धर्म है जो हर साबित मनुष्य से जुड़े हैं और करने के धर्म हैं, बल्कि सतत् करने के धर्म हैं। दिन मे कर लिये और रात मे छोड दिये, ऐसे धर्म नहीं है । घर पर पाल लिये और व्यापार मे छोड दिये, ऐसे भी नहीं है। सावन-भादो मे कुछ दिन सतत चला लिये और फिर बिलकुल भूल गये, ऐसे भी नही है। इनका सम्बन्ध मनुष्य की हर सास से है, हर काम से है, हर पल से है। यह टोटेलिटी-समग्रता का धर्म है । टुकडो मे चलेगा ही नही । पर इस धर्मविज्ञान के व्यावहारिक (अप्लाइड) रूप की हमने बडी दुर्गत की है। जीवन में?