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बार अपना मस्तक नमा रहा है । पर भीतर की प्रतिपल-प्रतिक्षण उगती हुई हिंसा उससे जो करवा रही है वह सम्पूर्ण मानव जाति का ऐसा डेन्जर झोन खतरे का क्षेत्र है, जिसने मनुष्य को खंडित कर दिया है। हम सब टूट चुके हैं । हमारा सर्वाधिक ध्यान इस बिन्दु पर टिकना चाहिए था, पर टिका नही । हमने अपरिग्रह तत्त्व को पकडा ही नहीं, बल्कि हम उल्टी दिशा में चल रहे हैं । हमारा जीवन अधिकाधिक परिग्रह — वस्तु- ससार, सत्ता-ससार और यश - ससार मे लिप्त है ।
वस्तुओ की रेलमठेल है--एक जाती है और दस आती है । मनुष्य वस्तुओं से घिर गया है। एक अम्बार है उसके सामने -- सब-का-सब पाना चाहता है । भीतर से उगनेवाली लालसा ने उसे जकड लिया है । वस्तु नही है, प्राप्त होने वाली भी नही है, पर लालसा बढ रही है । वस्तु आपके पास है और उसकी ईर्ष्या मेरे भीतर हरी हो रही है । सत्ता आपको मिली, छटाटा में रहा हूँ । आपका यश मुझे सहन नही है, उसे तोड़ने मे लगा है। यह जो वस्तुओं के होने या न होने, सत्ता के पाने या न पाने और यश को बटोरने या न बटोरने से जुडी तृष्णा, लालसा, ईर्ष्या और पा लेने की आकाक्षा का परिग्रह है, वह इतना गहरा और विशाल समुद्र है कि उसने हमारी सारी अहिंसा डूब रही है ।
अहिमा हाथ नही लग रही है
इसलिए प्रश्न उठता है कि महावीर को हम अहिसा की बाजू से समझे कि अपरिग्रह की बाजू से । ये एक ही सिक्के की दो बाजुएँ है । इधर से देखो तो अहिंसा है और उधर से समझो तो अपरिग्रह है, बल्कि अपरिग्रह की रीढ पर अहिंसा टिकी हुई है । किसी दूसरे धरातल पर वह नहीं उगेगी । मासाहार छोडने और पत्ताभाजी आदि से परहेज करने की अहिसा परिग्रह के साथ आप चला लें तो चला लें । लेकिन प्रेम की अहिंसा -- सम्पूर्ण प्राणिजगत् से एक रूप होने की अहिंसा का सीधा सम्बन्ध छोड देने से है, इस जीवन मे ?
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