Book Title: Mahavir Jivan Me
Author(s): Manakchand Katariya
Publisher: Veer N G P Samiti

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Page 115
________________ साथ ही, हमे यह जरा पसन्द नही है कि हमारे राम का चेहरा कठोर हो, कृष्ण भौंडे बन जाएं, ईसा आंखे तरेरते दिखाई दे, बद्ध गुस्से से भरे हो और महावीर के चेहरे पर तृष्णा तैर रही हो। एक भव्य मदिर में मैं गया तो वहां खडी आदमकद बुद्ध प्रतिमा के होठो पर हल्का गुलाबी रग पुता था, मानो वह लिपस्टिक वाला बुद्ध हो। भक्तो की भौहे इसी एक बात पर तन गयी कि यह क्या सूझा मदिर वालो को इतनी भव्य प्रतिमा को लिपस्टिक लगाकर बिगाड क्यो डाला? हममे इतनी समझ है कि राम-कृष्ण, बुद्ध-महावीर, ईसा आदि हमारे आराध्य देव शरीर को सजाकर श्रद्धेय नही हुए है-उनका आत्म-तत्व जागा और उनके जीवन मे उतरा इसी कारण वे हमारे तीर्थंकर बन गये है। मनुष्य को यही बोध देने मे उनका जीवन लगा है। उनकी सारी तपस्या आत्मबोध के लिए थी। खुब तप-तप कर, सह-सह कर, खोज-खोज कर उन्होने यह अमृत प्राप्त किया है कि मनुष्य का रास्ता शरीर की पटरी नहीं है, उसे चलना है तो आत्मा की ही पटरी पर चलना है। मृगतृष्णा पर यह क्या करिश्मा हुमा कि उनकी वीतरागता पाषाण पर तो उतर सकी, पर उस प्रतिमा के पूजक मनुष्य के हृदय में नहीं उतर पायी। सग-तराश, ऊबड़-खाबड पत्थर को घड-घडकर एक बढिया आकृति देते हैं और उसमे उन सब भावो को उतार लाते है जिन्हें महावोर जीये थे। जड को चेतन बना देते हैं और हम सब ऐसे सग-नराश है कि अपना ही चेतन छोल-छील कर फेंक रहे हैं और जडता उभार रहे है। हमारी छैनिया एक-दूसरे पर चल रही हैं। मैं आपके सारे गुण तराश-तराश कर मिट्टी मे मिला रहा हूँ और आप मेरे सारे गुणो पर हथोडा चला रहे है। खूब दोष-दर्शन हो रहा है। द्वेष-वैर एकदम पैने बनकर तन गये है। तृष्णाएँ चिकनी और चमकदार हो गयी है । लोभ हमारी आखो में उतर आया है और स्वार्थ हमारे रोये-रोये मे बिध गया है । जीवन मे? १०३

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