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अपनी आवाज वह सुनता नही, बाहर से जो सुनता है वह भीतर उतरता नहीं और इस तरह मनुष्य अपने ही आत्मबोध से बहुत दूर छिटक गया है। वह चाहता है कि उसके आसपास फैल रहे दु ख कम हो, क्रूरताएँ मिटें, करुणा-प्रेम उपजे और हमदर्दी बढे । भीतर से उग रही उसकी तृष्णा गले, अहकार कम हो और वह अपना राम अपने मे पा सके। यह तो करने से होगा। हम अपनी मजिल के खुद ही मालिक हैं। कुछ सुनना ही हो तो पहले अपनी सुने-वह आवाज जो अन्तरआत्मा से उठ रही है। महावीर ने कहा था-"स्वय में स्वय को ढूंढो और समझो।” पर हम अपने से तो एकदम कट गये हैं। परम श्रद्धा से सन्तन ढिग बैठ-बैठ कर अपनी जितनी गागरे भर कर लाते हैं वे सब वहा की वही खाली हो जाती है। वह पानी अन्दर नही पहुंच रहा है। इस सूखी खेती से क्या निपजेगा। हमारा सारा धर्म-लाभ, नाम-जपन बहुत निकम्मा बन गया है । कुछ करेगे तो ही जीवन हाथ लगेगा, कान बेचारे क्या करे-उनका श्रवण तो बन्द है।
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महावीर