Book Title: Mahavir Jivan Me
Author(s): Manakchand Katariya
Publisher: Veer N G P Samiti

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Page 94
________________ बहुत मजे से चर रही है हमारी 'श्रवण भक्ति' । न सुननेवाले को गिला है, न प्रवचन करने वालो को कोई शिकायत है । पर जा रहा है सब अकारथ । मनुष्य जहा का वहा है । ये सब धर्म सस्कार उसे छू ही नही रहे हैं । जाने कैसा फिल्टर (छलनी) उसने बना लिया है ? निन्दा -द्वेष सुनता है, सारे जन्म भर याद रखता है, दूसरो के दोष भूलता ही नही, अहवार की, hta की, बदला लेने की बात सारे समय स्मरण करता है, स्वार्थ की बात बुलन्द होकर उसके कान में गूंजती रहती है, लेकिन दया की, करुणा की क्षमा की, त्याग और सेवा की, सत्य और प्रेम की वे सब बाते जो मनुष्य के आत्म-धर्म से जुडी है, जो उसके धर्म-प्रथो में दोहराई गई है बार-बार कानो तक पहुँच कर भी फिल्टर हो रही है-जाने कहा जा रही है, और इस तरह हमारी 'श्रवण-साधना' निकम्मी बन गयी है । गाधीजी को अपने अतिम दिनो मे ऐसा लगा कि - 'मेरी अब कोई सुनता नही', जबकि उनकी प्रार्थना सभाओ मे हजारों लोग आकर बैठते थे और उनके प्रवचन सुनते थे । आकाशवाणिया आज भी गाधीजी के वचन उनकी ही आवाज में सुनाती रहती है, पर गाधी को लगा था कि उनकी कोई सुनता नही । वे बोल रहे है, लोग सुन रहे हैं, भीड है सामने, आवाज लाउड स्पीकर पर बुलन्द होकर खुले आकाश मे गंज रही हैपर गाधी समझ रहा है कि उसे कोई सुन नही रहा है । क्या राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद आदि पैगम्बरो ने भी अपने-अपने युग मे ऐसा ही महसूस किया होगा ? तब न भी किया हो, पर आज वे यह जरूर महसूस करते होगे । अभी-अभी महावीर की पच्चीसवी निर्वाण शताब्दी मे हम कितने जोर से उनके वचन बोल रहे हैं, बडी निष्ठा के साथ उनका सन्देश घर-घर पहुचा रहे है। लाखो कानो मे महावीर गंज रहा है । पर महावीर को जरूर लगता होगा कि उसने जो-जो कहा वह इस युग के मनुष्य को सुनायी नही दे रहा है। भीतर से कपाट बन्द हैं । ध्वनि कान में गूजकर ठप्प होती है, आगे बढ़नी ही नहीं । ८२ महावीर

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