________________
महाप्रभु, भूधरदास, बुधजन, नानक, कबीर आदि-आदि ईश्वर-भक्त गायक आकर देखे तो मुदित हो जायेगे कि उनके भजनो का सस्वर पाठ हो रहा है और लाखो कान उन्हें सुन रहे है । पूरी-पूरी गीता, पूरी-पूरी रामायण कई बार सुन गये हैं आप। भागवत्, बाइबिल, समयसार, महावीर-वाणी, बुद्ध-वाणी, कुरान, वेद, उपनिषद् गुरु ग्रन्थ-साहब के पवित्र ग्रन्थो से हमारे कान कई-कई बार अभिमन्त्रित हो चुके है, और मन्त्र अवगाहन (स्नान) का यह क्रम निरन्तर जारी है। बटुक से लेकर मरणशैय्या पर लेटा मनुष्य सुन ही सुन रहा है। मरण की बेला है, चेतना गायब है-पर पाठ चल रहा है। इस बुझते दीए मे सभव है कोई शब्द प्रकाश दे दे और उसका आत्म-द्वार खुल जाए। 'नाम-स्मरण' के पीछे हमारी ऐसी अट और अखण्ड श्रद्धा है।
'आत्मबोध' की राह मे 'श्रवण' एक सरल और सुगम उपकरण है जो सबको उपलब्ध है। मनुष्य सबसे अधिक इसी के सहारे जी रहा है। लिखे शब्द तो बहुत बाद में सामने आते हैं और भारत जैसे देश में यदि आप पढ-लिख नहीं पाये तो लिखा हुआ किस काम का | कोई सुनायेगा तभी वह आपके गले उतरेगा। इसलिये हमारे यहा 'श्रवण-परम्परा' बहुत गहरे जाकर धर्म से जुडी है। धर्माचरण में उसे महत्त्व का स्थान प्राप्त है। महत्त्व इस सीमा तक पहुचा है कि मात्र सुन लेने से मनुष्य को समाधान है। दौड-दौड कर वह धर्म-प्रतिष्ठानो मे जाता है और थोडा-बहुत सुनकरभजन-कीर्तन, शास्त्र-प्रवचन, मन्त्रोच्चार, जाप-जप, क्था, धन-जो सुनायी दे जाए वह सुनकर उसे बहुत राहत मिलती है। वह मानता है कि इस गाली-गलौच, निन्दा-स्तुति और छल-गाथाओ से भरी दुनिया मे इतना धर्म-लाभ तो हुआ | एक अबीज समाधान है। अखण्ड पाठ चलता है, लाउड स्पीकर की सहायता से वह दूर-दूर तक हजारो कानो में उतरता है। फुरसत नहीं है आदमी को सुनने की, वह मशगूल है अपने काम मेपर कान को छू लिया धर्मोपदेश ने तो सुनाने वाले को भी समाधान है और
महावीर