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सुनेंगे ही सुनेंगे, करेंगे कुछ नहीं ?
हमारी 'श्रवण-भक्ति' का कोई मुकाबला नही। इधर की आठदस पीढियो पर आप यह दोष नही मढ सकते कि वह सुनती नहीं, बल्कि वह श्रद्धापूर्वक दिन-रात सुन-ही-सुन रही है। हम बहुत अच्छे लिसनरश्रोता हैं। धर्म की बात तो हम पूरे मन प्राण से सुनते है। निरन्तर रामायण-पाठ चलता रहता है, सत्यनारायण की कथाएं होती हैं, मन्दिरो मे शास्त्र-सभाएँ जुटती हैं, मस्जिदो मे कुरान की आयतने बोली जाती हैं, गिरजाघरो मे प्रभु ईसा की प्रार्थनाएँ होती हैं और प्रवचनो की साधु-परम्परा हमारे दैनिक जीवन का अग बन गयी है। कीर्तन सारी-सारी रात चलता है। 'नाम-स्मरण' मे इस शताब्दी की पीढिया कतई पीछे नहीं हैं। भजनमण्डलिया अपने रुचिकर स्वरो से मन मोह लेती हैं और हर चौराहे पर सत्सग जम जाता है। नाम स्मरण
सूर, तुलसी, एकनाथ, तुकाराम, माधवदेव, दादू, मीरा, चैतन्य जीवन में?