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हो जाएगी। वाणी की कुछ मर्यादाएँ है जिनका सीधा सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा से है। पहली मर्यादा तो यही है कि 'सत्य का उच्चारण' करे । जो सत्य हमें दिखायी देता हो वही सत्य बोलें। हमारा अपना राम जो भीतर है वह हमें रास्ता दिखायेगा। सत्य को छिपाने मे वाणी का उपयोग नही करे। दूसरी मर्यादा बहुत सादी है कि हम 'मितभाषी' हो-नपे-तुले शब्दो का प्रयोग करे। सहज-सीधे होकर बोलने मे यह मर्यादा बडा साथ देगी। तीसरी कैद है कि 'निन्दा न करें। दोषो का जपन करने से जो दोष हमसे बाहर हैं, दूसरो के पास पडे हैं, वे हमारे भीतर दाखिल हो जाते हैं । वाणी की जड तो मन में है। वहा जो-जो कूडा पहुचेगा वह उगने लगेगा
और हमारी वाणी निकम्मी बन जाएगी। चौथी मर्यादा इतनी-सी साध ले कि जो दूसरो के लिए अहितकर बात है वह न बोलें। 'हित-बुद्धि' से हर बात जाचेगे तो वाणी बहकने से बचेगी। ___ महावीर ने इसे अनुभव किया था और अपने जीवन में उतारा था। वे बोले तब भी उनकी वाणी आत्म-धर्म से जुडी रही और चुप रहे तब भी वाणी का धर्म आत्मा ही रहा। वे कहते है --"असत्य से रहित सुखद भाषा का प्रयोग कर । देख, तेरे बोलने से किसी के व्यक्तित्व का हनन तो नहीं हो रहा है ?" अहिसा के साधक गाधीजी ने भी यही किया। वे कहते हैं--"पूर्ण शुद्ध बनने का अर्थ है मन से, वचन से, काया से, निर्विकार बनना, राग-द्वेषादि के परस्पर विरोधी प्रवाहो से ऊपर उठना।" हमारी वाणी के तार इसी आत्म-धर्म से जुड़े हुए हैं लेकिन हमने प्रवाह-पतित होकर अपनी-अपनी वाणी के तार आत्म-धर्म से अलग करके चारो दिशाओ मे गुंजित स्वार्थ-धर्म से जोड लिये हैं और अब उन्ही प्रतिध्वनियो से हमारे हृदय भरते जा रहे है। और इस तरह हमारी वाणी कुण्ठित है-शत-शत गुना मुखरित होकर भी अनसुनी है। हमारे अपने ही शब्द निर्वीर्य हो गये हैं। बोल कर क्या कीजिएगा?
०० महावीर