Book Title: Mahavir Jivan Me
Author(s): Manakchand Katariya
Publisher: Veer N G P Samiti

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Page 61
________________ इम उधेड-बुन में मनुष्य यह भूल ही गया है कि 'त्याग और भोग या भोग और त्याग' का कोई अनिवार्य अध्यात्म है । वे दोनो एक अनुपात में मिलते है तो ही जीवन बनता है, नही तो जीवन बिखरता है। आज तो स्थिति यह है कि भोग का ससार अलग है और त्याग का ससार अलग है। भोग को, उपभोग को कोई लगाम नही है और त्याग ने अपनी एक छोटी दुनिया बना ली है। त्याग कर रहे हैं लेकिन अपने ही अपने समार में सिमटकर कर रहे है। कुछ त्याग तो ऐसे है जिनका सबंध जीवन से कम, शरीर से अधिक है । आपने उपवास कर लिया, कुछ परहेज पाल लिया, कायम के लिए कुछ पदार्थ अपने आहार से निकाल दिये-अच्छी बात है, ये 'ड नॉटस'सोगन्धे (मोगन) आपका शरीर सुधारेगी और कुछ सकल्प-शक्ति बढ़ायेगी। नन्हे-नन्हे बच्चे भी उपवास कर जाते है। कोई शनिवार करता है कोई सोमवार, व्रतो की एक लम्बी फेहरिश्त भारत के जन-जीवन के साथ जुड़ी हुई है। छोडते रहने का यह अभ्यास निरतर जीवन-भर चलता है, फिर भी भोग त्याग की पकड से बाहर है। कुछ त्याग ऐसे हैं जो इस जन्म से ताल्लुक ही नहीं रखते। वे केवल अगले जन्म को सुधारने के लिए हैं। हमारे अधिकाश दान-धर्म अगले जन्म के लिए अकित हैं। मानो वे हुडिया हो जो मरणोपरान्त सिकारी जाएगी। हमारे कुछ त्याग महज़ अपने परिवार के लिए है-बाप ने बेटे के लिए छोडा हे और भाई ने भाई के खातिर । इसे सौदा तो नहीं कह सकते, लेकिन अपने ही सुख का यह एक परिवर्तित रूप है। जरा नजर तो फैलाइयेहम लोग कितने बडभागी हैं कि हमारी साध जमात जिसने घर त्यागा, स्वजन-परिजन छोडे और वर्षों अपनी काया को तपाया-उसकी सख्या एक करोड के करीब है। हर पचास के बीच एक त्यागी-तपस्वी, लेकिन उनको यह त्याग-मात्रा भी भोग को अपनी गिरफ्त में नहीं ले सकी। उल्टे, अप्रत्यक्ष रूप से भोग इन त्यागियो पर भी सवार है । तब भी, त्याग का यह आलम कन्डेम (निकम्मा) करने की बात नही जीवन मे?

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