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भीड़ कहीं कुचल न दे !
भीड कही कुचल न दे, यह कहने के बजाय क्या यह कहना अधिक उपयुक्त नही है कि भीड ने आदमी को कुचल दिया है और वह अपनी इस स्थिति से उबरने के बदले इसे ही अपनी तरक्की समझ रहा है ? बात यह उस भीड की नहीं है, जो आप-हम सिनेमा घरो के सामने, रेलवे प्लेटफार्मों पर, रेलगाडियो मे, माघ-मेलो मे, जलसो मे या नुमाइशो मे देख रहे हैं। ऐसी भीडे हमे घडी-दो-घडी के लिए अच्छी लगती हैं और फिर बिलकुल नही भाती। जितनी बडी भीड, उतने ही बडे स्टैम्पीड-भगदड की आशका रहती है और आदमी उससे कतराकर दूर भागना चाहता है। भीड मे घुसकर अपना काम बनाने के बजाय वह कोई चोर-दरवाजा ढूंढकर भीड से बच निकलना चाहता है। उसकी सारी शक्ति, परिश्रम, परिचय, रुतबा और अक्ल भीड को टालकर काम बना लेने मे लग रही है। भीड में फंसे रहना और धक्के खाना उसकी लाचारी है, कामयाबी इसी मे मान ली गयी है कि भीड उसे सहनी न पडे और वह भीड से कुछ अलग नजर आये।
महावीर