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है। उसकी जकड मे हम इसलिए नहीं है कि उसने हमे पकडा है, बल्कि हुआ यह है कि हम उससे चिपक गये हैं। जो धर्म हमारा अपना है, मनुष्य के खुद के आचरण का है, प्रतिपल-प्रतिक्षण जीने का धर्म है, बोलने के बजाय करने का धर्म है, खुद की कमजोरियो से लडने का धर्म है, अपने को तपातपाकर निखारने का धर्म है वह हमने तसवीरो, मूर्तियो, बन्दनवारो, तोरणद्वारो, रथयात्राओ, बोलियो व नीलामियो पर चढा दिया है। भीड खुश है, उसे एक काम मिल गया और हम भी बहुत खुश हैं, महावीर गली-गली मे लहराने लगा।
इस भ्रमजाल में मनुष्य यह भूल ही गया है कि वह जिस धर्म की जयजयकार मे लगा है, वह आत्मा का धर्म है, वस्तुओ का बिलकुल नही । उसका सबध उससे है जो मनुष्य जन्मते समय अपने साथ लाया है। आदमी न नगा जन्मा है, न खाली हाथ जाने वाला है। वह कुछ लेकर आया है
और लेकर ही जाएगा। बच्चे को देखिये न । कितनी बेशकीमती चीजे साथ लेकर जन्मा है-उसके पास भोलापन है, ममता है, सादगी है, सरलता है, करुणा है। चोरी उसे आती नहीं, छिपाना वह जानता नही, जो कहता है सच ही कहता है, बल्कि सच के अलावा कुछ नही कहता। पर हमारे भीतर की भीड उसके इस बेशकीमती खजाने को समृद्ध करने के बजाय उसे ईर्ष्या दे रही है, पुरस्कार के रूप मे घृणा दे रही है, सम्मान के रूप मे अहकार थमा रही है। उसे खुदगर्जी सिखा रही है। ममता की मूर्ति पर क्रूरता पोत रही है। मजा यह है कि भीड की इस चपेट मे बच्चे तो है ही, बडे और अधिक है, क्योकि भीड का मनोविज्ञान उनके रक्त मे घुलमिल गया है। __ क्या हम वर्द्धमान को समझने के लिए, गाधी को समझने के लिए, अपने
और-और महापुरुषो को जानने के लिए, उनके जीवन का गुर पहचानने के लिए और उनके सदेशो पर अपनी जीवन-यात्रा चलाने के लिए भीड के वाहन से नीचे उतरेंगे? हमारा धर्मचक्र अपनी ही करनी के पहियो पर
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महावीर