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ऐसा न हो कि महावीर अगूठी मे, पेपरवेट पर, चाबी के छल्लो पर, ग्रीटिंग कार्ड मे, केलेण्डर में, किताब के चटकीले आवरण मे, आदि -आदि बातो मे सीमित रह जाए ।
आशका जायज है । अभी-अभी तो हमने गाधी की पहली जन्मशताब्दी इसी तरह मनायी है । गाधी को हम हेअरपिन पर उतार लाये । एकदम सिर माथे पर बैठा लिया। वह बिल्लो की शक्ल में हमारे सीनो पर उतर गया । बटनों की शक्ल में हमारे वस्त्रो पर टग गया। मूर्तियो के रूप मे हमारे चौराहो पर खड़ा हो गया। रुपयो की सूरत मे हमारी तिजोरियो मे पहुच गया । उसकी वाणी का सम्पूर्ण वाङमय एक क्विटल से कम नही है, उठ तो सकता नही इसलिए हमने हिफाजत से अलमारियो में रख दिया । भीड के पास एक ही फारमूला है । गाधी के मरने के केवल २० वर्ष बाद जो गाधी का किया वही वह महावीर का करने जा रही है । २५०० वर्ष के बाद तो और अधिक छूट लेने की गुंजाइश है न
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जो भी हो, गाधी और महावीर के भक्त जो कुछ कर रहे हैं परम श्रद्धा और भक्ति के साथ कर रहे हैं। मनुष्य कतई नही चाहता कि वह अपने मसीहाओ, पैगम्बरो और तीर्थंकरो को उपेक्षित रखे। उन्हें वह सरआखो पर बैठाना चाहता है, उसका वश चले तो माउण्ट एवरेस्ट पर उन्हें बैठा दे | अब यह हिमालयी काम अकेले उसके वश का नही, इसलिए भीड को लेकर चल रहा है । और यही उसकी सबसे कमजोर कडी है । ऊँचा उठाकर भी, लाखो कण्ठो से जयघोष करवाकर भी वह अपने महापुरुषो को अपनी ही पहुच से बाहर कर रहा है। उसके हाथों वही सब कुछ हो रहा है जो उसके गुरू नही चाहते थे । एक अजीब पेरॉडॉक्स हैविरोधाभास है । जो नहीं होना चाहिए वही जोरो से होता है ।
भ्रम जाल
इस उलझन की तह मे आप जाये तो पायेंगे कि वह उस भीड़ का अजाम है जिससे हम सब घिरे हैं। वह अति सूक्ष्म होकर हमारे भीतर पैठ गयी जीवन मे ?
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