Book Title: Mahavir Jivan Me
Author(s): Manakchand Katariya
Publisher: Veer N G P Samiti

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Page 79
________________ बढती हुई भीडें मनुष्य का नया सिर-दर्द है और उससे निजात पाने के अनेक उपाय खोजे जा रहे हैं। आबादी के भारी-भरकम बोझ से हमे अपना अर्थ-शास्त्र चरमराता नजर आ रहा है। हमारे सब पैमाने छोटे पड़ रहे हैं और अगर बोझ इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो घरा एक दिन मनुष्य को कहेगी कि-'मैं तुझे धारण करने में असमर्थ हूँ।' भीड का लोभ पर मैं इस भीड की बात नहीं कर रहा। इसके लिए आप हम सब बहुत-बहुत चिन्तित हैं, और शायद बचने का कोई रास्ता ढूंढ लेंगे। लेकिन उस भीड का क्या होगा, जिसमे व्यक्ति खोकर भी रम गया है, जिसने हमारे दिल और दिमाग पर काबू पा लिया है, जो हमारी रूह मे उतर गयी है और बडी प्यारी लग रही है ? यह भीड है परम्पराओ की, मान्यताओ की, लीको की जो धीरे-धीरे ढेर-की-ढेर बन गयी हैं और इतनी प्रतिष्ठा पा गयी हैं कि मनुष्य उसमे खो गया है। घर मे, शाला मे, बाजार मे, व्यापारव्यवसाय मे, दफ्तर मे, राज-काज मे और धर्म-काज मे बात चाहे आत्मधर्म की हो या शरीर-धर्म की, मनुष्य उन छबियो से घिरा हुआ है, जिसे भीड ने बनाया है। भीड से परे होकर वह कुछ देख ही नही रहा है। जिस काम में भीड इकटठा होती है वह ग्राड गेला सक्सेस-चरम सफलता है, अन्यथा सब फैल। हमारे हर काम ने समारोह का रूप ले लिया है। इतना प्रभावी है यह रूप कि दूसरा कुछ सूझता ही नहीं। यह जो मजमा जोडने की बात है वह इस कदर घर कर गयी है कि गृहस्थ के लिए वह आन-बान और शान की चीज बनी है और साधुमना विरक्तो के लिए भी वह लुभावनी हो गयी है। एक बार हमने चाहा कि श्री. जी का प्रवचन कुछ जिज्ञासुओ के बीच हो जाए, पर प्रवचन इसलिए नही हो पाया कि उन्हें हजारो से कम के बीच बोलना बहुत छोटी बात लगी। और इस तरह भीड बहुत गहरे उतर गयी है । वह छा गयी है और जीवन में?

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