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स्वामिनी । किसी-किसी भाषा को करोडो बोलते हैं और समझते हैं । इन समुद्ध भाषाओ के पास अनन्त शब्द-भण्डार हैं, बात कहने का एक लहजा है, लोंच है और इन सबको निखारने वाले पण्डितो, शास्त्रियो, साहित्यिको और उल्माओ की नहीं टूटने वाली कतारें जनमती रहती हैं। ऐसा विशाल, गहरा और शताब्दियो तक टिका रहने वाला भाषा का आधार पाकर भी मनुष्य की वाणी निढाल है । अपने दिल की बात आदमी अपने ही इर्द-गिर्द नही पहुचा पा रहा है। कहना चाहता है, पर कह नही पाता। उसकी वाणी अब उस पर ही असर नहीं करती। क्या हुआ वाणी को?
बात यह हुई कि भाषा बनी तो वाणी के लिए, पर अब वाणी से उसका नाता लगभग टूट चुका है। यो भाषाएँ खूब मॅजती रही हैं, निखरती रही हैं, उनका बढिया विकास हुआ है, अपने ही लिखे, बोले पर मनुष्य फूला नही समाता, कुछ वचन और कुछ मन्त्र तो वह ऐसे बोल गया कि सदियो तक वे हवा में मँडराते रहे हैं फिर भी वाणी अनाथ है । भाषा छिटक कर अलग जा पडी है और वाणी बुझते-बुझते अति मन्द हो चली है। __वीणा-वादिनी मा सरस्वती ने भाषा के तार इसलिये झकृत किये थे कि उन स्वरो मे मनुष्य का हृदय बोलेगा। जो पीडा, जो घुटन, जो सवेदना उसके दिल मे उठती है उसे वह प्रकट करेगा और पडोसी इन्सान के साथ हमदर्दी रख कर उसके सुख-दुख मे हाथ बँटायेगा। पर वाणी को गति नही मिलो। मूक प्राणियो की तरह मनुष्य अपनी ही दुर्दशा को, चारो ओर उफनती हिंसाओ को, अन्याओ को, अनाचारो को, भय की डरावनी शक्लो को टुकुर-टुकुर देखता रहता है और उसकी बोली बन्द हो जाती है। यो हम बहुत चहक रहे हैं, पर वाणी अधिक कुण्ठित हो गयी है, रंध ही गयी समझिये, एकदम निष्प्रभ है।
पूछेगे आप अपने आप से कि ऐसा क्यो हुआ? निरन्तर बोलते ही
बीवन मे?