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की हर सास के साथ विज्ञान और विज्ञान का वस्तु-भण्डार जुड़ा हुआ है। समाजहीन और वस्तुहीन कोई नही बन पाला- साधक बन पाता है, न गृहस्थ-तब हमारे चिन्तन का, हमारी आराधना का, हमारी पूजा का, हमारी धर्म-साधना का मोड (ढन) क्या हो ? अत्यन्त श्रद्धा-भाव से मन्दिरो की पावन छत के नीचे अर्पित हमारी पूजा-अर्चना, विनीत भाव से घडो-दो-घडी का हमारा शास्त्र-स्वाध्याय, तस्व-वर्षा और मीमासा, धर्म-श्रवण और व्रत-उपवास, ध्यान-धारणा आदि बहुत लघु साबित हो रहे हैं। हमारा यह कीमती आत्मबोध हमे ही नहीं छू पा रहा है, समाज को तो कैसे छुएगा? सम्यक् तत्त्व की यह उपासना एकदम व्यक्तिगत बन गयी है । इतनी व्यक्तिगत कि व्यक्ति स्वय उससे अछता रह जाता है । ___ मनुष्य को उसके धर्म-ग्रन्थ, दर्शन-शास्त्र, मन्दिर, आराधना-घर, पूजा-अर्चना, भजन-कीर्तन, सत्सग और व्रत-नियमादि इस मजिल तक तो जरूर ले गये कि वह ससार की, पुद्गल की और पुदगल के भौतिक सुखो की सारहीनता को समझे और आत्मा के सार तत्त्व को जाने, आत्मा की गति पहचाने, उसे पर-द्रव्य से अलग करके देखे और आत्म-तत्त्व की उपासना करे।
पर मैं अति विनम्र होकर कहना चाहता है कि मनुष्य की यह महज पहली मजिल है, भव-सागर का एक किनारा मात्र है, जिस पर खडा मनुष्य यह समझ रहा है कि वह सम्पूर्ण जगत् से अलग कोई एक आत्म-तत्त्व है जिसे इस भवसागर मे डूब नहीं जाना है। पर यह समझ उसकी यात्रा का अन्तिम पड़ाव नहीं है, बल्कि उसकी लम्बी यात्रा का केवल एक डग है। उसे जितनी लडाई अपने भीतर उपजने वाली तष्णा, हिसा, द्वेष, वैर, मोह, ममता और लालच से लडनी है, उससे कई गुणा अधिक लडाई उसे समाज मे कैसर की तरह फैल रही हिंसा, क्रूरता, स्वार्थपरता, आपाधापी, असत्याचरण और मोह-जाल से लडनी है। पर एक आत्मज्ञानी, मुमुक्ष तो बाहर
जील?