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नहीं, अपने ही सुकर्मों से तरने वाले हैं; गडे-ताबीज से उसकी व्याधि दूर नही होने की-पर भय से हारा-थका मनुष्य शकित श्रद्धाओ के साथ यह सब करता जाता है। ये सारे परम्परागत बोझ उसे ढोने पड़ रहे हैं।
भय की एक और बाज़ है कि लोग क्या कहेंगे'। अपने आत्म-बोध को एक तरफ रखकर मनुष्य अपनी कृतियो को दूसरो के लैन्स से देखता है और गडबडा जाता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, इसलिए लोकाचार का खयाल तो उसे रखना होगा, रखना चाहिए। अपने पडोसी को कष्ट मे डालने वाला आचार सदैव ही बुरा माना जाएगा। उतनी लक्ष्मण-रेखा मनुष्य अपने चारो ओर खीचे और ऐसा कोई कृत्य नही करे जो पडौसी के लिए, समाज के लिए, और राष्ट्र के लिए खतरे से भरा हो तो वह भय की नही सुविचार की मर्यादा मानी जाएगी। लेकिन ऐसी सब मर्यादाएँ तो मनुष्य निरन्तर तोड़ रहा है। साथ ही, बहुत से अच्छे काम, अच्छे कदम इसलिए चूक रहा है कि लोग क्या कहेगे'। मनुष्य अपने पराक्रम का खुद निर्माता है, लेकिन वह अपनी आखो से देखे तब न | परिणाम यह है कि दूसरो को जचता है तो करता है, नहीं जचता है तो पीछे हट जाता है । ___ इस रिट्रीट का-पलायन का एक यह पहलू भी है कि मनुष्य अप्रसन्नता मोल नही लेना चाहता। मैं अपने एक मित्र को जानता हूँ जिन्हे पीने से सख्त नफरत है, पर वह मित्र-मडली मे बैठकर इसलिये पी जाते है कि मित्र नहीं मानते । अपने मित्रो के बीच वह नक्क नही बनना चाहते । यह जो 'मखौल' का डर है वह सर्वोपरि बन रहा है । यदि सुकरात मखौल से घबराता तो शायद बहुत से सत्य समाज मे उतरते ही नही । हर वीर पुरुष ने अपने आसपास के लोगो की, समाज की और राष्ट्र की अप्रसन्नता को सहा है। ईसा इसीलिए तो सूली पर चढाये गये कि उनकी बाते तत्कालीन समाज के गले नहीं उतर रही थी। गाधी को गोडसे ने इसीलिए तो गोली मारी कि गाधी के कृत्य उसे भा नहीं रहे थे। ऐसे उदाहरणो से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। ये सब वे धीर-वीर पुरुष-महापुरुष है, जिन्होने
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महावीर