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क्यो बेच रहा है । इस प्रश्न की तह मे उतरेगे तो आप पायेगे कि मनुष्य ने अनेक रावण-रेखाएँ अपने चारो ओर खीच ली हैं , जिन्हे लापने की हिम्मत उसमे नहीं है। वह भय-पीडित है। मैं उस भय की बात नहीं कर रहा जो एकदम सतह पर हैं। उफनते हुए समुद्र को देखकर आप डर जाएँ, जायज है । बियाबान जगल मे अकेले फंस जाएँ, डरना मुनासिब है। हिंसक पशुओ से भय लगेगा ही। बाढ़-भूकम्प से भी आपका जी कापेगा। गरज यह कि प्रकृति के विकराल रूप के आगे मनुष्य पगु रहा है और उस सीमा तक उसका भयभीत होना स्वाभाविक है। बावजूद इसके, मनुष्य ने इस छोर पर काबिले-तारीफ हौसला दिखाया है। घने जगल, ऊँचे पहाड, तूफानो समुद्र, आकाश की दूरी और पृथ्वी की गहराई उसके वश मे हैं । यह क्षेत्र अब भय का नहीं रहा। प्रकृति मनुष्य की चेरी है। ___एक और छोर हे जिस पर भी मनष्य की विजय पताका लहग रही हे । उसने खुद आगे बढकर अपनी ही पाशविकता को नियन्त्रण मे लिया है। मनुष्य के बहकते हुए वहशीपन के लिए उसके पास राज्य शासन है, दण्ड-विधान है, जेलखाने है, पुलिस है, फौज है और हथियारो तथा आयुधो का अखूट भडार है। बहक कर देख लीजिए फिर या तो आप जेल के सीकचो मे बन्द मिलेंगे, या पागलखाने मे । मनुष्य अपने ही पशबल से और पागलपन से खुद सावधान है। जहा-तहा बहुत मामूली-सी बातो पर हिसा भडकती है तो काबू मे भी आ जाती है। युद्ध लदते है, विनाश होता है, लेकिन मनुष्य फिर शान्ति की राह पर चलने लगता है। नि सदेह उसने अपनी भडक उठने की दुर्बलता पर पूरी तो नही, आशिक विजय जरूर पायी है। भय के घेरे
पर भीतर से उसकी वीरता परास्त है । बाहर बह दिलेर है, हर सकट का डटकर मुकाबिला करता है । जान पर खेल जाता है । आग लगी
महावीर