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से कतरा रहा है और यह सब देख-समझ कर भी अपने ही भीतर बन्द है । यह कैसे सम्भव है कि चिन्तन के क्षणो मे आप सम्यक् बने रहें, शास्त्रस्वाध्याय करते समय आपका आत्म-तत्त्व सजग रहे, मन्दिर - उपासरो मे आपको सम्यक् तत्त्व की गरमी मिले और बाहर का आपका सम्पूर्ण जीवन मिथ्या - आधारित चलता रहे ? बाहर का मिन्याचरण मनुष्य को ग्रात्मधर्मी नहीं रहने देगा । तब क्या मनुष्य केवल भीतरी मिथ्यात्व से जूझेगा और समाधान पायेगा ? या अपनी ताकत बाहर के मिध्यात्व को जीतने मे लगायेगा ?
कृति में मिथ्याचरण और चिन्तन मे सत्य की उपासना, मन्दिर में आत्म-ज्ञान और बाहर भोग-विलास, धर्म-ग्रन्थो मे तत्त्व-चर्चा और समाजजीवन में स्वार्थपरता, उपवास भी और परिग्रह भी यह चलने वाला है नही । इस द्राविड प्राणायाम मे हमने जितना आत्मज्ञान खोजा और पाया वह सब धुल-पुंछ गया है । सम्यक् तत्त्व को खोकर मनुष्य के सारे कारनामे उसके लिए ही बोझ बन गये है, जिसके नीचे दबा हुआ मनुष्य एक दिन निश्चित रूप से करवट लेगा और तब वह अपना आत्म-ज्ञान अपनी हर कृति मे ढूंढेगा । उसकी धर्म-साधना एकान्तवासी नही रहेगी, पूरे समाज के बीच होगी, सबके लिये होगी और मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन के साथ जुड़ेगी । यही मनुष्य का असली धर्म है ।
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महाबीर