Book Title: Mahavir Jivan Me
Author(s): Manakchand Katariya
Publisher: Veer N G P Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 65
________________ है कि अपनी कृति उसके लिए एक जाल बन गयी है । फिर भी उसकी तृष्णा कम नही हुई, उसे समाधान नहीं और वह अपने को अधिकाधिक भ्रमित महसूस कर रहा है । इतना सब जानकर, देखकर, रचकर भी वह स्वयं को नही पकड पाया। आज भी आत्मबोध की पहली सीढी पर ही खड़ा है वह । बाहर समुद्र है जानकारी का, ज्ञान का, वस्तुओं का और रचना तथा विनाश की शक्ति का पर भीतर से पानी सूख रहा है । मनुष्य को सन्देह है कि वह मनुष्य रह गया है क्या ? विचार तो साफ हैं कोई नही चाहता कि युद्ध हो, आगजनी हो, मारकाट मचे और मनुष्य, मनुष्य का हनन करे । कोई नहीं चाहता कि वह ठगा जाए, उसे झूठ का सामना करना पडे, और सत्य उससे छिन जाए। कोई नही चाहता कि उसका सामान कोई चुरा ले जाए, डाका पडे और वह लुट जाए। कोई नही चाहता कि राह चलती उसकी बेटी को कोई छेडे और वह खतरे मे पड जाए। कोई नही चाहता कि वह फुटपाथ पर बिना दाना-पानी के पड़ा रहे और उसके सामने वाले महल मे वस्तुओं के ढेर लगे हों। मनुष्य चाहता है कि हिंसा न हो, झूठ न बोली जाए, चोरी न हो, शील-भग न किया जाए और जमाखोरी न भुगतनी पडे । यदि पारिभाषिक शब्दावली लूँ तो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, शील और अपरिग्रह, जिन्हे हम पच महाव्रत की सज्ञा दिये हुए हैं, वे मनुष्य जीवन के अति साधारण रोजमर्रा के नियम है । इन नियमो की मर्यादा लाभकर मनुष्य, मनुष्य ही नही रहता । लेकिन दयनीय स्थिति यह बनी है ये कि पथ महाप्रत तो यारम की रूह मे कैद हो गये हैं और मनुष्य की रूह में उत्तर साथी है हिंसा, तृष्णा, फरेबी, झूठ, चोरी, ठगी, आपाधापी, अश्लीलता, भोडापन और इन सबको पनाह देने बाली बेशुमार बीजे। जो नियम, व्रत आदि अतिसाधारण जीवन की बुनियाद हैं वे प्रवचन और अध्ययन के विषय बन गए हैं। उन पर चर्चायें जीवन में ? ५३

Loading...

Page Navigation
1 ... 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140