Book Title: Mahavir Jivan Me
Author(s): Manakchand Katariya
Publisher: Veer N G P Samiti

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Page 59
________________ मजा यह है कि भोग को हम थू-थू कर रहे हैं और भोगते जा रहे हैं। त्याग को समझ अधिक रहे हैं, कर बिलकुल नही रहे हैं। होना यह चाहिए था कि हम त्याग के बजाय भोग को समझते । कित्तमा भोगें, किस तरह भोगे, कब तक भोगें और भोगें कि नहीं भोगें इसका एक विज्ञान रचते । त्याग तो भोग से जुडा ही हुआ है, वह सहज सध जाता। त्याग और भोग की दुनिया अलग-अलग नहीं है । दोनों सापेक्षिक शब्द हैं-एक-दूसरे पर आधारित । बल्कि भोगने की हर वस्तु, भोगने का हर अधिकार, भोगने की हर घडी त्याग के ही धरातल पर खडी है। ये बेशुमार वस्तुएँ जिनसे हम घिरे हैं और जिनका हम उपभोग कर रहे हैं, उनके निर्माण मे सृष्टि की हजारो-लाखो वर्षों की तपस्या निहित है और लाखो-करोडो मनष्य के हाथ निरतर लग रहे हैं। करता इस सीमा तक पहुंची है कि जो हाथ वस्तुएँ बनाते हैं वे ही उनसे वचित रहते है। यह लाचारी का त्याग है, पर त्याग तो है ही जो हर वस्तु के साथ जुड़ा है। इसे आप मनुष्य की चतुराई कहिये या कुछ और, उसने अपने उपभोग के लिए प्रकृति से, प्राणी-जगत से और स्वय अपनी ही जमात के लाखो-करोडो से ढेर-भर छुड़वाया है । भोग-उपभोग की पारम्परिक परिभाषा से थोड अलग हटकर सृष्टि के वृहत् केनवास पर इसे रखकर देखिए । मनुष्य त्यागी बनकर, सन्यासी बनकर भी क्या भोग-शून्य हो पाता है ? वह भी निरतर भोग रहा है और अपनी जीवन-लीला समाप्त होने तक भोगता चला जाता है। भोग जीवन की एक प्रमिवार्य शर्त है, साथ ही, स्याग भी जीवन की एक अनिवार्य शर्त है। आपने अपने उपभोग के लिए भले ही त्याग न किया हो, पर कोई न कोई तो आपके लिए कर ही रहा है । प्रकृति तो इतनी उदार है कि उसने मनुष्य के हाथो में अपने सपूर्ण भडार ही सौंप दिए है। भोग-उपभोग के पागलपन में मनुष्य ने प्रकृति के इन भडारो का जमकर दोहन किया है और अब इस रिसर्च (खोज) में पड़ा है कि ये भडार कितने दिन और चलेंगे? उसे चिन्ता लगी है कि उपभोग की यही गति बीवन में? YG

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