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लगेगा । ठीक ऐसा ही फारमूला जीवन-शास्त्र के वैज्ञानिक विनोबा ने प्रस्तुत किया है- जीवन को पाना हो तो 'त्याग २ भोग' को स्वीकारो ।
दुविधा
मनुष्य की यह एक ऐसी खोज है जो सच भले ही हो, पर जिसे स्वीकारने को उसका जी नही होता । वह एक ऐसी दौड मे लगा है जिसमे भोग अनन्त, त्याग कुछ नही । बिना त्याग के जितना सुख भोगा जा सके, भोग लिया जाए। वह जानता है कि इस दौड़ मे उसके हाथ से जीवन खिसक रहा है, लेकिन भोग के मैदान से हटने का उसका मन नही होता । शायद वह हिम्मत भी खो बैठा है ।
सब धर्मो के पास जीवन जीने का एक मेटाफिजिक्स (अध्यात्म) है । कोई नहीं कहता कि भोगो । सब छोडने की बात करते है । खानेपीने की वस्तुओ से लेकर धन, सत्ता, पद, अधिकार, मोह, ममता सब कुछ छोडने के धर्मादेश हैं । जिनके जीवन से मनुष्य प्रभावित है उन्होने भी भोगा कम, छोडा ही छोडा है । बुद्ध, महावीर, ईसा, मुहम्मद, गाधी सब त्याग के हिमालय हैं । उन्होने जीवन जीया, जीवन पकड़ा और बदले
सब दे डाला । वे मुक्ति के हिमायती थे, मोक्ष मार्ग के साधक । इसे सब जानत है, सब मानते हैं । अब मैं आपसे भोग की सारहीनता की बात करू तो वह चर्वितचर्वण ही होगा । निरे भोग में किसी का भरोमा है नही । प्रवचन हमारे त्याग की दुहाई देते है, मंदिर त्याग के प्रतीक हैं, साहित्य की सब कथाएँ - लघु हो या बडी-त्याग का ही बखान करती है, यहा तक की शाला की सब पाठ्य-पुस्तको में बलिदान (सेक्रिफाइस) के ही उदाहरण पेश है। फिर भी मनुष्य ने रास्ता भोग का पकडा है । भोग के लिए बेतहाशा दौड़ लगी है-होड लगी है और जीवन बिखर गया है ।
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महावीर