Book Title: Mahavir Jivan Me
Author(s): Manakchand Katariya
Publisher: Veer N G P Samiti

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Page 16
________________ अपरिग्रह की साधना के बिना अहिंसा टिकेगी नहीं । वस्तुओं से घिरे इस ससार मे सहज होना है तो परिग्रह छोडना होगा। इससे ही बात नही बनेगी कि आप यह तय कर ले कि मैं यह खाऊंगा, यह नहीं खाऊँगा, इतना पहनूंगा, इतना नही पहनूंगा, इतना चलूंगा, इतना नही चलूंगा । मेरी धन-मर्यादा इतनी है, वस्तु-मर्यादा इतनी है । बात वस्तुनों को छोड़ने की नहीं, वस्तुओं से अलिप्त होने की है। महावीर की साधना इस दिशा में गहरे उतरी और उन्होने वस्तुओं से अलिप्त होने की सिखावन दी । अहिंसा और अपरिग्रह को उन्होने एक-दूसरे के लिए अपरिहार्य बना दिया । यह एक ही सिक्का है— इधर से देखो तो अहिंसा है और उधर से देखो तो अपरिग्रह है । वस्तुओं मे उतरा - डूबा मन अहिंसा के पथ पर लडखडा जाएगा, उन्होने इसका स्वय अनुभव लिया । अब यह जो आप उनका दिगम्बर रूप देखते हैं, वह महज त्याग नही है । निर्लिप्त रहने की साधना है। त्याग तो बहुत ऊपर-ऊपर की चीज है । अहिंसा के साधक को वस्तुओं से घिरे रहकर भी निर्लिप्त होने की साधना करनी होगी । और यह केवल साधक का ही रास्ता नही है, मनुष्य मात्र का रास्ता है । मनुष्य के जीवन की तर्ज अहिंसा है तो उसे अलिप्त होने का अभ्यास करना ही होगा । सम्यक् जीवन अहिंसा की साधना मे महावीर एक और रत्न खोज कर लाये । धर्मजाति-लिंग-भाषा के नाम से मनुष्य ने जो ये खेमे बना लिये हैं, वे व्यर्थ हैं। मनुष्य, मनुष्य है। अब उसकी काया स्त्री की है या पुरुष की, जन्म उसने इस कुल मे लिया हो या उस कुल में, वह मूल मे मनुष्य ही है । और मनुष्य के नाते अपने आत्म-कल्याण की उच्चतम सीढी पर चढने का उसे पूरा अधिकार है । स्त्री की छाया से डरने वाला सन्यासी - समाज महावीर की इस क्राति से चौंका। कुलीनता की ऊँच-नीच भावना का महावीर

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