Book Title: Mahavir Jivan Me
Author(s): Manakchand Katariya
Publisher: Veer N G P Samiti

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Page 44
________________ है-फिर जितना सुच, जिस तरह मिल जाए पुण्य का प्रताप है, भाग्योदय है-बेधड़क बेरहमी से उपभोग करने का लायसेन्स मिल जाता है। पारलौकिक जीवन के लिए धर्म-साधना है ही। पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, उपवास-प्रत निरतर चलता है-यही हमारा धर्माचरण है। कर्माचरण लौकिक सुख के लिए, धर्माचरण पारलौकिक सुख के लिए। इसीलिए मनुष्य के सुकर्म या कुकर्म धर्म से नही बधे हैं। समूचे धर्माचरण को समाज-जीवन से कुछ लेना-देना नहीं है। मनुष्य के समूचे जीवन का इतना सरलीकरण कभी नही हुआ । प्रश्न है कि जिस राह पर आज का मनुष्य चल पडा है क्या उससे वापस लौटने का समय नहीं आ गया है ? हम बात आत्मबल की करते रहेगे और आराधना शरीर-बल की करेगे? हमारा पुण्य किस चीज का सिरमौर बनेगा ? धन-सम्पदा का या त्याग का, सत्ता-अधिकार का या कर्तव्य-निष्ठा का, भोग का या सयम का, वस्तुओ के अम्बार का या अपरिग्रही वृत्ति का, सादे जीवन का या ऐश्वर्य वाले जीवन का, परिश्रम का या आराम का? सभवत मनुष्य को नये सिरे से इन प्रश्नो के उत्तर खोजने की जरूरत नही है। उत्तर तो उसने साफ-साफ सोचकर धर्मग्रथो और नीति-वचनो मे लिख लिये है। उसे मालूम है कि मनुष्य की सच्ची राह कौन-सी है । शायद मनुष्य के वर्तमान जीवन में अधिकाश कष्ट इसीलिए पैदा हुए हैं कि उसका पुण्य गलत रेलगाडी मे सफर कर रहा है। और इसी तरह पुण्य की प्रतिष्ठा यदि धन-सम्पदा, ऐश्वर्य और सत्ता अधिकार के साथ जुडी रही तो मनुष्य और गहरे अधकार में भटकेगा। ०० महाबीर

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