Book Title: Mahasati Sur Sundari Author(s): Gyansundar Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpamala View full book textPage 6
________________ (३) णभरत, अब भरतक्षेत्रकि सीमापर चूलहेमवन्त नामका पर्वत् हे उसके मध्यभागमे एक पद्मद्रह नामका होद है उसके अन्दरसे गंगा ओर सिन्धु नामकि दो नदियों उत्तर भरतक्षेत्रसे मध्यभागमें रहा हुवा वैताडगिरि को मेद के दक्षिणभरतमें हो लवणसमुद्रसे जा मीली है, इस वास्ते भरतक्षेत्र के छ खंड माने जाते है हम जो यह कथा लिखते है वह दक्षिणभरत के मध्यभागकि है उस दक्षिणभरत के मध्यखंड के अन्दर चौदा हजार दश है जिस्मे यह कथा अंगदेश व्याप्त है वह अंगदेश कैसा है कि सुन्दर वनगजी विशाल वृक्ष फल फूलसे सम्रद्ध उचे उचे सिखरोवाले पाहाड वडेही वेगसे चलती हुइ नदीयों अनेक पसलसे पैदास होते खाद्य पदार्थोसे देश और देशवासी लोक वडे ही उन्नत दशा के साथ प्रमोदित हो रहा था उस देशमें जनसंख्याकी अच्छी विशालता थी. उस अंगदेश के भूषण-धनधान्य मनुष्य वैणज्य बैपार कर प्रबाद चौरासी चौवटे बावनबजार धनसंचय, धनरक्षण, निमत्त गढ कीला बुरजो तोरण दरवाजे तथा मोहले मोहले सिखरबंध दंडध्वजसे शोभित जिनालय ओर भी राजा महाराजा सेठ इमसेठ स्वार्थवाहा प्रादि के मेहलप्रासाद हवेलीयों श्रादि मकानात बहुत सुन्दराकर और धनाड्य लोगोंसे अति रमण्यमानों सुरलोग सादृश अंगदेश के प्रमभूषण चम्पानामाकिनगरीथी कहा है कि “ नगरीसोहंति जलमूल वृतं, राजासोहंता चतुगंगशैन्य, नारिसोहन्ति सो शीलवन्ति, साधु सोहन्ता अमृतवाणि" नगरीके लोग बडे ही भद्रीक है नितिज्ञ, न्यायज्ञ, धर्मज्ञ, तत्वज्ञ, स्वकार्यदक व्यवहारकुशल, राजभक, देशभक्त,. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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