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सस.
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महासती सुरसुन्दरी.
मुनिश्री ज्ञानसन्दरजी.
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* श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पुष्प न.७५.
श्रीरत्नप्रभसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः
अथ श्री जैन कथा संग्रह."
(प्रथम भाग)
लेखक, श्रीमद् उपकेश ( कमला ) गच्छीय मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज.
-dot
द्रव्य सहायकश्री मुखसागर ज्ञानप्रचारक सभा.
मु० लोहावट-जाटावास-मारवाड.
प्रकाशकश्री जैन नवयुवक मित्रमण्डल-लोहावट.
प्रथमारति .....
वीर सं. २४५०.
विक्रम सं १९८०.
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धन्यवादके साथ स्वीकार.
इस पुस्तक कि छपाइ में निम्न लिखित महाशयजीने द्रव्य सहायता दि है उसे यह सभा सहर्ष स्वीकार करती है. ७५) शाहा फोजमलजी ज्ञानमलजी पारेख. ५१) शाहा मोतीलालजी हीरालालजी पारख. २५) शाहा लक्ष्मीचन्दजी मूलचन्दजी पारख.
साथमें धन्यवाद भी दीया जाता है. अन्य महाशयजीको भी अपनी चंचल लक्ष्मीका अवश्य सद्उपयोग करना चाहिये । शम्
'प्रकाशक.'
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__ श्री रत्नप्रभाकरमानपुष्पमाला पुष्प नं. ७५
नप्रमाकर
अथश्री जैन कथाओं संग्रह..
भाग १ ला.
-xoxप्यारे वाचक वृन्द ! यह बात तो आप वखुखी जानते हो कि जैन साहित्य में : धर्मकथानुयोग " भी विशाल स्थानकों रोक रखा है एक ज्ञातसूत्रमें पचवीस कोड कथाओथी जिस कथाओं के अन्दर राजनीति, धर्मनीति, सदाचार, गृहस्थाचार, मुनिश्राचार, दानशील तपभाव, क्षमादया ब्रह्मचर्य ज्ञानध्यान पुरुषार्थ उद्योग हिम्मत संकटसहन वीरता और भाग्यपरीक्षा आदि अनेक हितबोधकारक होनेसे वह कथाश्रो भी दुनियों के कल्याणमें एक साधनकारण बनके अन्य रहस्ते जाते हुवे मुग्ध अज्ञानी जीवों के अत्याचार दुराचार कुविश्नों कों रोक के सन्मार्ग पर ला सक्ते है पूर्वमहाऋषियोंने बालजीवों के हितार्थ अनेक विषयोंपर भिन्न भिन्न कथानो लीखके जनतापर वडा भारी उपकार कीया था. परंतु उन कथानोकि भाषा संस्कृत प्राकृत होनेसे तया भाषामे भी पद्यबन्ध होनेसे जमाना हालके सीदी सरल भाषाके पाठकों को सम्पुरण लाभ न मीलनेके कारण प्रचलीत . भाषामे वह कयामों लिखनेकि परम पावश्यक्ता है उस तूटि कि पुरति के लिये ही यह प्रयत्न किया गया है, किमधिकम् ।
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(२) कथा नम्बर १
सुरसुन्दरी महासती-इस रसीक कथा के अन्दर संसार कि अस्थिरता लक्ष्मी कि चंचलता संकट में धैर्यता और पुरुषार्थसे कार्य सिद्धि का चित्र बतलाये जावेंगे.
असंख्याते कोडोनकोड योजनका एक राज होता हे वेसे चौदाराजप्रमाण यह लोक है जिस लोक के तीन भेद है. उर्ध्वलोक जिस्मे वैमानिक देव या सिद्ध निवास करते है अधोलोक जिस्मे नारकि के नैरिया या भुवनपतिदेव निवास करते है तीर्यग्लोक जिस्मे व्यंतरदेव ज्योतिषीदेव तथा मनुष्य तीर्यंच निवास करते है उस तीर्यग्लोक में असंख्यद्वीप समुद्र है जिस्मे अढाइद्विप और दो समुद्र एवं पैतालीसलक्ष योजन लम्बा चौडा गोलाकार क्षेत्रमे मनुष्य रहेते है बाकीके द्विपसमुद्रमे तीर्यच जीव है. अढाइद्विपमे जो जम्बुद्विप नामका द्विप है वह एकलक्ष योजनका लम्ब चोडा है गोलचन्द्र-रथके पँया-चक्र-कमलकि कणिका
और तेलके पुँवाके आकारहै जिस्की परधी ३१६२२७ योजन तीन गड़ एकसो अठाइस धनुष्य साढातेरह अंगुल एक जैव एक जू एक लीख छेबालाग्र पांच व्यवहारिये परमाणु जितनी है उस जम्बुद्विपके अन्दर कर्मभूमि मनुष्य रहने के तीन क्षेत्र है भरतक्षेत्र ,एखयक्षेत्र, महाविदहक्षेत्र जिस्मे हम जो जीस कथा को लिखते है वह भरतक्षेत्रकि है. भरतक्षेत्र के मध्यभागमे वैत्ताड्यगिरिनामका चंदीका पर्वत है जिनसे भरतक्षेत्रका दो विभाग माना जाता है यथा- उत्तरभरत और दक्षि
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(३)
णभरत, अब भरतक्षेत्रकि सीमापर चूलहेमवन्त नामका पर्वत् हे उसके मध्यभागमे एक पद्मद्रह नामका होद है उसके अन्दरसे गंगा
ओर सिन्धु नामकि दो नदियों उत्तर भरतक्षेत्रसे मध्यभागमें रहा हुवा वैताडगिरि को मेद के दक्षिणभरतमें हो लवणसमुद्रसे जा मीली है, इस वास्ते भरतक्षेत्र के छ खंड माने जाते है हम जो यह कथा लिखते है वह दक्षिणभरत के मध्यभागकि है उस दक्षिणभरत के मध्यखंड के अन्दर चौदा हजार दश है जिस्मे यह कथा अंगदेश व्याप्त है वह अंगदेश कैसा है कि सुन्दर वनगजी विशाल वृक्ष फल फूलसे सम्रद्ध उचे उचे सिखरोवाले पाहाड वडेही वेगसे चलती हुइ नदीयों अनेक पसलसे पैदास होते खाद्य पदार्थोसे देश और देशवासी लोक वडे ही उन्नत दशा के साथ प्रमोदित हो रहा था उस देशमें जनसंख्याकी अच्छी विशालता थी.
उस अंगदेश के भूषण-धनधान्य मनुष्य वैणज्य बैपार कर प्रबाद चौरासी चौवटे बावनबजार धनसंचय, धनरक्षण, निमत्त गढ कीला बुरजो तोरण दरवाजे तथा मोहले मोहले सिखरबंध दंडध्वजसे शोभित जिनालय ओर भी राजा महाराजा सेठ इमसेठ स्वार्थवाहा प्रादि के मेहलप्रासाद हवेलीयों श्रादि मकानात बहुत सुन्दराकर और धनाड्य लोगोंसे अति रमण्यमानों सुरलोग सादृश अंगदेश के प्रमभूषण चम्पानामाकिनगरीथी कहा है कि “ नगरीसोहंति जलमूल वृतं, राजासोहंता चतुगंगशैन्य, नारिसोहन्ति सो शीलवन्ति, साधु सोहन्ता अमृतवाणि" नगरीके लोग बडे ही भद्रीक है नितिज्ञ, न्यायज्ञ, धर्मज्ञ, तत्वज्ञ, स्वकार्यदक व्यवहारकुशल, राजभक, देशभक्त,.
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( ४ )
समाजभक्त, देवगुरुधर्मभक्त, प्रतिज्ञा प्रतिपालक दृढ नियमधारक, परद्रव्बग्रहनमें पंगु, परनार निरक्षणमे अन्धे, परापवादबोलनेमें मुक्का, परनिंदाश्रबमे बेहेरे, दंड कहाजायतों वह उचे उचे सिखरवाले मंदिरोपरही पाया जातेथे न की कीसे मनुष्यपर कवी दंड हुवा हो, बन्ध कहा जाव तो मात्र ओरतो केशो परही सुना जातेथे नकी कींसे पौरजनको बन्ध हो कारण वहां राजा प्रज्यापाल है रैयत राजभक्त है और भी नगरी शोभा अधिक वृद्धि करनेवाली दानशालाओ, पाठशाला, अनाथाश्रम, हुन्नरोद्योग, पाणीकी पर्ब, मुसाफरखाने धर्मशाला आदि है. उस चम्पानगरी के बाहार अनेक जलाश्रम तलाव कुँवे वावी पुष्करणि नदी नाला करना उझरना निकरना जिनोके श्राश्रीत रहे हुवे शोकवृक्ष, नलीयर, खीजुर, दाडिम, द्रक्षा विजोरा वा पीपर
निंबु सीताफल पुंगीफल नागपुन |ग आदि वृक्षोंसे वह जलाश्रय अच्छे शोभनिय थे उस चम्पानगरीकि इशानकोनमे अनेक प्रकार के वृक्ष लत्ता - श्यामलत्ता वसंतलत्ता चम्पकलत्ता - कमल पद्मकमल महापद्मकमल पुंडरिककमल सुगन्धीकमल चन्द्रविकाशीत सूर्यविकाशित शतपत्र सहस्रपत्र मालति आदि बापियों तलवों देदींपमान है जाइ जुइ चम्पो चपेली गुलाब हीनो मोंगरी मरवो मचकुन्द श्रादिसे बगेचे सुवासित हो रहा था जिस सुगन्धके भारे भ्रमरगण गुंजार शब्द कर रहे है फलफूल के प्रभाव से हंस मयूर कोकल तीतर शुक्र कोचपाक्षी आदि मधुर मधुर शब्दोंसे कीलोंल कर रहेथे आये हुवे पान्थीक लोगोके भ्रम दूर करनेमे यह बगीचा वडाही सहायक बन वेठा था. भोगी लोगोंके भोगविलासमे एकामानोनन्दन बनकि श्राशाको पूर्ण कर रहा
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( ५ )
था. और योगि महात्माओोके योगाभ्यास श्रासन समाधि ध्यानमें परम समाधि स्थान पुर्णभद्र नामका वगेचा था.
उस चम्पानगरीमें धराधिप सुरवीर धीर पराक्रमी भूजबलसे वैरीगंजन प्रजापाल न्यायावतार धैर्यवन्त गंभीर उदार दानेश्वरी जिस्की दीमाग दयासे भरी हैं उज्वल यश चौतर्फ विश्वव्याप्त है वैरी भूमिया जिस्के चरणकमलोंमे सदैव सिर झुकाये करते है राजतंत्र चलानेमे बडाही कुशल है स्वतंत्र भूमिभोक्ता है अनाथोके सहोदर ईश्वरभक्त स्वसंतोषी प्रबल प्रतांपी तेजस्वी प्रादयनाभसे प्रपनि श्राज्ञाको भू व्याप्त कर प्राज्याकों सुख समुद्र और निर्भय करनेवाला चक्रवर्त्ततूल्य जयशत्रु नामका राजा राज करता था. गजाके गृहश्रृंगार रूप में रंभा चातुर्य लावण्य सर्वागसुन्दराकार पतिवृता व्रतपालक उदारचित और गृहकार्यमें दक्ष धारण नामक राणि थी. उस राजाके च्यार बुद्धिका निधान श्याम, भेद दंड अर्थोपार्जन भर राजाके मनको जाननेवाला सन्धीकार्य रहस्यकार्य गुंजकार्यमें नेक सलाह देनेवाला राजतंत्र चलानेमें कुशल प्रज्याप्रेमी देशभक्त मतिवृद्धन नामका प्रधान था. उस नगरी अनेक धनाढ्य उदार दयावान् स्वस्वधर्ममें निश्चल परिणामि षट्कर्मकर्त्ता नगरसेठ इप्भसेठ भार्डबी कोटम्वी श्रादि छत्तीसो काम अपने अपने पैसामें प्रवृतमानथे, जीस्मे भी धनदत्त नामका सेठ बडा ही प्रमेश्वर था जिस्की नाम्बरी देश दिशावरोंमें प्रज्ञात्तयी राजासे भी बडा आदरसत्कार प्राप्त कीया था, वैणज्य वैपारमें भी अग्ने भाग सेठजीका रहता था. न्याति जातिमे भी सेठजीका मान कुच्छ कम नही था अर्थात् पहले सेठजी कों बुलाया जाता था जब सेठजी बजा
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रसे आते जाते थे उस समय अच्छे प्रतिष्ठित लोक अपनि दुकानोंसे खडे हो सेठजीको आदर दीये करते थे. यह शोभाग्य सेठ धनदत्त को क्यो मीला था कि सेठजी सबके कार्योमे तन धन मनसे मदद करते थे अपना कार्य छोडके भी परकार्य में पहले सुधारा करते थे. इत्यादि गुणकर सेठजी अपने पूर्वजोकि माफीक यशः कीर्ति का अच्छी तरह रक्षण कीया था सेठजी के यशोमति नामकि भार्या थी वह सलाहमें मित्रतूल भोजनमें माता तूल शय्यामे भार्यातूल शरीररक्षमे वैद्यतूल्य दानमे वैशमणतूल्य. दयामें रामतूल्य. सर्वांग सुन्दराकार गृहश्रृंगार लक्ष्मी अवतारादि औरभी महिलावोंके गुणसंयुक्त थी. पूर्वोपार्जन किये पुन्योदय सेठजीका गृहवास माने स्वर्ग मे देवतूल्य था. सेठजीके चम्पानगरीमे और दीसावरोंमे वेपार च्यारं प्रकारकेगीणमा, तूलमा, नामपा, परक्षमा क्रिरियाणसे और समुद्रमे जादा जो आदिसे चलता था पुन्योदय सेठजीके पास नीनाणवे (६६) क्रोड सोनइयोकि लक्ष्मी जमाथी लक्ष्मी होनेपर अगर पुत्र न होतोभी संसारमे सुख नही मीलता है परन्तु सेठजीके क्रमशः च्यार पुत्र रत्नकी प्राप्ती हुइथी उनोके नाम महिपाल. रायपाल. तेजपाल. और सुरपति. वह च्यारो पुत्र लिखेपडे नितिज्ञ अपने पिताश्रीकि आज्ञा पालन करनेमे वडहीदक्ष वेपारमें हुंसीयार युवकवयमे आनेसे वडे वडे साहुकारों कि वर प्रधान सुर सुन्दरियोंके सादृश लिखी पडी महीलाोकि चौसटकालामें कुशल हुनरकार्यमें पटुत्त बचपनसे पाइ हुइ तालिम विनय भक्ति शुश्रषामे प्रवीण महिला गुणसंयुक्त च्यार कन्याओको च्यार पुत्रोके साथ धर्मलग्न कर दीया जेसे महीपालको
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मानश्री. रायपालकों रत्नश्री. तेजपालको तेजश्री और सुरपतिको सुरसुन्दरी. लग्नका प्रसंग बहुतही उत्तम था ओर कन्याओके पित्ताने उन विवहामें नौ नौ क्रोड सोनइयोंका दत्तदायचा दीया था सेठजीके नीनाणव क्रोडकी पहले जमाथी और ३६ क्रोडका दत्त आया इसे १३५००००००० एक अब्ज और पैतीस क्रोड सोनइयोंका पति सेठजी अपने च्यार पुत्रोंके साथ तथा सेठाणीजी च्यार पुत्रोकि ओरतोंके साथ मानो सुरलोकमें देवतोंकि माफीक आनंदमे सुख भोग रहे थे इस सुखके मारे सेठसेठाणीयोंका शरीर आरोग्यके साथ सुन्दरता और लम्बचौडा पसर गया था मांनो मारवाडी सेठोकी माफीक धुंद खुब वढ गइथी सुख एक एसीही चीज हुवा करती है राजतेज न्यातिजाति पंचपंचायति वैणज्य वैपारादिमे धनदत्त सेठजीका बडाही आदर-सत्कार हुवा करता था जीमे सेठजीको नो क्या परन्तु सेठजीके पाडोसी भी उस मुखमें अन्दर मग्न हो गये थे.
पाठकों इन्सानकि सदैव एकही अवस्था नही हुवा करती है सूर्य पूर्वमे उदय होता है वह क्रमशः मध्यानमे होके श्यामका अस्ताचलपर चलाजाता है पूर्णिमाका पूर्णचन्द्र क्रमश: अमावश्यको अवलम्बन कीया करते है सुखके अन्तमे दुःख और दुःखके अन्तमे सुख हुवाही करते है और इस प्रारापर संसारके अन्दर पौद्गलीक जितने सुख और दुःख है वह सब स्वछत कर्मोकाही फल है शास्त्रकारोंने खुब जोर शोरसे पुकार करी है कि हे भव्वों अगर तुमे सुखकी सची प्रमिलाषा है तो सर्व जीवोंके साथ मैत्रिकभाव रखो अपनेसे बने वहांतक कोसीकाही भला करो तांके भविष्यमें सुखी हो पाखीर प्र
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(८)
व्वाबाद सुखोका अनुभव करोगें किन्तु कीसीके साथ वैरभाव निन्दा ईर्षा मत रखो कारण बन्धा हुवा कर्म न जाने कीस समय उदय होगा
ओर उसके कटुक रस कीस रीतीसे भोगवीये जावेंगा इत्यादि वापर सुज्ञ मनुष्योंको ध्यान अवश्य देना चाहिये । अब आप ध्यान देके सेठजीके-कर्मफलोंको श्रवण करीये ।
___एक समयकि जिक्र है कि सेठजी अपने मोतिमहल जोकि जिस कम्मरेमे सोना मोतियोंका काम हुवा छप्परपिलंग सोनेकी संकलो लगी हुइ है गादीतकियेकी कोमलता मक्खनके माफीक ओर खसखसकि तटीयोंसे सुगन्धी ओर शितल पवनकि लेहरो आरहीथी पीकदान पासमे पडा हुवा है रात्रीमे अन्त्रके दीपक जल रहे थे रत्नजडतकि दांडीवाला फैका हाथमे धारण कर सेठाणीजी खडी थी उस अवस्थामे सेठजी अपने महलमे छप्परपीलंगपर लेटे हुवे थे जब दश बजेकि टैममे सेठजी के नयनोमे निंद्रा निवास करने लगी तब सेठाणीजी अपने महलमे चले गये करीबन बारहा वजेकि टैमथी सेठजीसुखमे शय्यन कीये हुवे थे दीपक सेठजीके पहरा देरहाथा. इतनेमे तो करकंकणका झंणकार कटीमे खला ओर पावोमे नैवर मंझणके अवाजो दमकती भाल चमकती चुदड शोलह श्रृंगार करी हुइ देवस्वरूप दीव्वतेजवाली महिला सेठजीके सिरकि तर्फ खंडी हो बोली क्यों सेठजी आप सुते हो या जगृत. सुखी सेठजी बोलेभी क्यों पुन: दोतीनवार जोरसे पुकार करी इतनेमे जजकके सेठजी जगृत हुवे देखा जावे तो कोइ ओरत खडी है सेठजीने कहा कि तुम कोन हो और इस समय हमारे महलमे कीस वास्ते प्राइ हो ? उत्तरमे उस ोरतने कहाकि सेठजी में आपकि कुल
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(६) देवी हु और कीसी कार्यवसान्ही आइ हु आप अगर सावचेत होगये हो तो में कुच्छ कहना चाहाती हु. सेठजीने कहाकि मे ठीक सावचेत हुं आपको कहनाहो वह कहदिजिये तब देवीने कहाकि मे हमेशों मेरे उपासक भक्तोकि साहित्य करति हुं कुशलता चाहाति हुं। परन्तु आज मेरे ज्ञानद्वारा यह जाननेमे आये हे कि आपके कीसी भवोंके उपार्जन कीये हुवे द्वादशवर्षोंके दुष्ट कर्मोदय होनेवाले है इसकि इतला देनेको में
आपके पास प्राइहु इस बातका मुझेभी वडाभारी फिक्र है जीससे मेने बहुत उपाय सोचा परन्तु एसा कोंइभी उपाय मुझे नही मीला है कि में आपको कष्टकर्मोसे बचा सकुं। अब आप सावचेत हो जाइए । यह सुनतेही तो सेठजीका छकाछुट गये तारांणकसगये याने होस उढगये अर्थात् सेठजीका चैग पूर्णीमाके चन्द्रके माफीक था वह अमावाश्यकि रात्रीके माफक श्याम पड गया था जो लबीसी धुध वडी हुइथी वह गर्भमुक्त औरतोकि माफीक शोषन होगइ थी सेठजीके निश्वासःकि तर्फ देखा जावे तों इतनितो दीलगीरी पाइ जातिथी कि सेठजी बेहोस होगयेथे । देवीने कहाकि सेठजी गभगते क्यो हो तीर्थंकर चक्री और महान पुरुपोंकोंमी अपने कर्मभोगवने पड़े थे तो इस संकटकि बख्त आपको हीम्मत नहि छोड देना चाहिये इत्यादि कहेनेसे सेठजीका दीमक कुच्छ हिम्मतकि नर्फ हुवा सावचेत हो बोला कि हे देवी मेंने मेरी उस्मरतक तेरी पूजा करी नैवद्यादि सुन्दर पदार्थ चढाये और अबभीमें तेरा उपासक हुं तो तेरी मोजुदगीमे मेरी यह दश होना क्या सोचनिय नही है क्या इसे तेरीभी कमजोरी न पाइ जायगा इत्यादि सेठजी पवनपटुतासे देवीको बहन उपालंभ दीया परन्तु यह कार्य कोई देवके
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(१०) हाथका नहि कि कीसीके कर्मोसे बचा सके। देविने उत्तर दीया कि सेठजी आप जरूर मेरे उपासक हो मेरा कर्तव्य है कि मेरेसे बने वहांतक में आपकि सहायता करू परन्तु क्याकरू मे इस कार्यमे लाचार हुं आपकातो क्या परन्तु में मेरेभी कर्मोको नही छोडा सक्ती हु। तोदूसरोके लिये तो मे करही क्या सक्ती हु अपही वतला ये तीर्थंकर चक्रवर्तोके तो हजारो लाखो क्रोडो देवताओं सेवामे रहतेथे वहभी उन महान् पुरुषोंके कर्मोको नही छुडा सके तो मे आपके कर्मोको केसे छुडा सकु । बस । सेठजीको देवीकि श्रासासे निरास होनाही पडा. फीरभी सेठजी विचारके बोला कि हे देवी अब इसका कोइ उपायभी हैं । देवीने सोचके कहाकि सेठजी दूसरातो कोइभी उपाय नही हैं अगर हेतो इतनाकि इस कर्मोंके उदयकालको कुच्छ मुदित अागी पीछी मे कर सक्ती हुँ जैसे कीसी कीसांनके साहुकारका करजा है वह साहुकार कहता है कि मै इसी बख्त रूपैये लेढुंगा इसपर कोइ तीसरा मध्यस्थ कहे कि दो च्यार मासके लीये मुदत है तो एसा बन सक्ता है कि दो च्यार मासकि मुदत मीले इसी माफीक आपके कर्मोदय कालकों मे मुदित पलटासक्ती हु किन्तु विगर पैसे मध्यस्थ फारकती नही कराशकते है इसी माफीक विगर भुक्ते कर्म नही छुटते यह केवल शेठजीको विश्वासके लिये ही कहा था यह सुनके सेठजीने सोचा कि खेर शुमे में मेरे सब कुटुम्बवालेको पुच्छके तुझे जबाव देउगा यह कह कर देवीकोतो विदा करी पीच्छे सेठजी उन सोचरूपी समुद्रमे पडके अर्णवका मथन करना सरू कीया कि हे ईश्वर ! मेरे सिरपर यह क्या आफत डारी है मैं स्वप्नमेभी यह नही जानता था कि मेरे इस स्वतंत्र सुखोमे कोइ बादा डाल स
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(११) केगा ? तो आज यह कंटक शब्द मेरे कानोमे क्यो पडे है क्या सचही में इस सुखोको छोड दुःखोका अनुभव करूगा अगर यह मेरी साहिबी छुट जावेगा. अरेरेरे करतेही सेठजीको एकदम मुळ श्रा गइ। कुच्छ देरीसे सेठजी सावचेत हुवे नेत्रोसे प्रांशुवोकि नदीयों चलने लग गई है ओर रुदन करते हुवे सेठजी सोचने लगे कि अहो कर्म विरम्बना. अगर दुःख आवेंगा तो मेरे यह मोतीमहल छुट जावेंगा शालदुशाला सिगसावुनि ओर सबमान आदारसत्कार छुट जावेंगा। नही नही में इस्को कैसे छोडुगा इत्यादि विचारसागरमे गोता खाते को वह दुःखरात्री सेठजीको सो वर्ष तूल्य होगइ वार वार उठके आकाश देख रहे थे अब कीतनी गत्री है एसे विलापातसे सेठजीने रात्री निर्गमन करी शुभ उठके सेठजी सेठाणीके महलकि तर्फ जाके दरवाजेके कपाट खखडाये सेठाणीजी सुखभर निंद्रासे जागेभी क्यो ओर सेठजी पानेका कारणही क्यो जाने. दो तीनवार पुकार करनेसे सेठाणीजीने सोचाकि शब्द अवाजतो सेठजीकी पाइ जाति है परन्तु इस बख्त सेठजी यहां क्यों आये होगें । कपाट खोलके देखा तो निस्तेज सेठजी खडे है सेठाणीजीने पुच्छाकि हे नाथ आज क्या है कि आपका दीनवदन भयंकार दीखता है सेठजीने कहा कि आप सुखसे पीलंगपर पडे हो आपको मालुम क्यो है कि रात्रीमे मेरी क्या दशा हुइ ? सेठाणीजीने कहाकि में आपकि सेवासे प्राइ वहांतक तो प्रापको कुच्छभी दुःख नही था तो क्या मेरे भानेके बाद आपके शरीग्मे कुच्छ तकलीफ हुइथी ? सेठजीने कहाकि नहि-तो फीर क्या कारण है कि भाप इतने फीक्रमें है। सेठजीने कहाकि गत्रीमे अपनी कुलदेवी
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(१२) आइथी यावत् सब हाल सुनाया. सेठाणीजी सुनतेहै मुर्छा खाके गीर पडी हाथोकि चुडीयो तुट गइ सिरके बाल कोपीत होगये शरीरपरके वस्त्र दुश्मन होगये जो दशा सेठजीकी हुइथी वहही सेठाणीजी की हुइ सोचीये सज्जनों दुःख सब जीवोंको प्रतिकूल है आखिर सेठ सेठाणीने सोचाकि अब क्या करना चाहिये सेठाणीने कहाकि सेठजी अपनि तो उम्मर पक गइ है जो शरीरमे नशा ताक्तथी वह धनमद कुटम्बमद और सुखकिथी अब दुःख सहन करनेयोग अपनि अवस्था नही है यह सब कार्य अपने पुत्रोका है इस्मे सलाहाभी पुत्रोकीही लेना चाहिये इस निश्चय पर च्यारो पुत्रो और च्यार पुत्रबधुप्रोकों बीलाये. दशोजने एक कम्मरेमे एकत्र हो सलाहा करने लगाकि कर्म अपनेको भोगवनाही हैं इस्मेमें तो कोइ मत्तभेद हैही नही किन्तु कर्म भोगवना इस बख्त या पीछेसे. इस्मे अपनि अपनि रहा देना चाहिये पुत्रोने सोचाकि इस बख्ततों अपनी सादी हुइ है युवक वय है धन धान्यादिकी सामग्रीभी पासमे है याने सुख भोगवनेकी बख्त है वास्ते मीले हुवे सख तों भोंगवले फीर वृद्धावस्था तो स्वयंही दुःखदाइ हैं उस दुःखके साथ यहभी दुःख सहन करेगें जो कुच्छ होगा सो आगे के लीये है मीला सुख क्यों गमाना चाहिये यह विचार कर सबने अपनि अपनि निश्चत वातोको प्रगट करी जिस्मे सेठसेठाणी च्यारो पुत्र और सुरसुन्दरी छोडके तीन बेटोंकी औरतों अर्थात् नौजीनोका तो एकमत हो गयाकि इस समये सुख भोंगवले पीछेसे दुःख भोगवाना ठीक है किन्तुसुरसुन्दरीने अपना मत्त प्रगट नहीं कीया जीसपर सेठजीने कहाकि ह गुणवन्ती ! तुं तेरा मत्त कहे । सुरसुन्दरीने कहाकि हे सुसराजी
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(१३)
जब आप नौजिनोंका एक मत्त हो गया तो में कोइ आपके मत्तसे खीलाप नही हुँ । सुसराजीने कहा कि कपाली कपाली मत्ती भिन्न भिन्न होती है वास्ते तेरे मगजमे आयाहो वह तुंभी कहे ? इसपर सुरसुन्दंगने कहाकि आप नौजीणोके जो वात जची है वह ठीकहीं होगा कारण आप सब बुद्धिशाली हो में तो सबसे लघु-बालक हु परन्तु यह वात मेरे समममे नही प्राति है । मे यह समजती हु कि इस समय हम श्राठोकि युघकावस्था है अगर कैसाही दुःख क्यों न आवे ! हम सब मजुरी करके भी बाराह वर्ष निकाल देगें फीर सुखही सुख है। अगर इस समय सुख भोगवीया जाय तो वृद्धावस्था में एक तो अवस्था वृद्ध दुसग निर्धन तीसग हुःख यह त्रीपुटी के मारे अर्तध्यान गैद्रध्यानसे मरके दुर्गतिमे जावेगे तो अपुन सब चीरकाल तक दुःखो से मुक्त न होगे वास्ते मेरा यह मत है कि इस युवक वयमे दुःख भोगवना ही ठीक है. इस प्रज्ञावन्ती का शब्द श्रवण कर नौजीणो के मगजमे इस सलाहको स्थान मील गया-ओर बीलेकि यह वात ठीक है. इस बख्न जैसे तैसे ही कर्म भुक्तना ठीक है । बस दशों जिणों का एकमत्त ही ठराव पास हो गया गत्रीमे सेठजी के पास देवी पाई सेठमीने कह दीया कि देवी, हमलोग इस बख्तमे खुशीसे कर्म भोगव लेगे । देवीने कहा कि सेठजी मे भी श्रापकों यही सलाहा देती कि
आपको युवक वयमे कर्म सहन करना ठीक है जिस्मे मेरा भी कुल वापिस अच्छा मजबुत बना रहेगा. हे शेठ ! यह तुमारे लघु पुत्र कि ओरत सुरसुन्दरि बडी बुद्धिवान् है इस्के कहने माफीक चलेगें तों तुमको फायदा होगा. अव मे जाति हुँ आप सावचेत रहना । शेठजीने
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(१४)
कहा कि क्यों देवी तुमारा कर्त्तव्य नैवद्य छडापाखानेकाही है इस वास्तेही दुनियोंसे पूजाती है. वहा देवी वहा, तुमारी स्वार्थवृति । देवीने कहा कि सेठजी मे जो आपका नैवद्य आदिसे पूजातिहुं जीस्का फर्ज प्राप कों देदीया अर्थात् आपको सावचेत कर दीया जिस्के जरियेसे आप एक दील हो कर कर्मोको भोगवनेका निर्णय कर लिया है क्या मेने मेरा फर्ज नहीं बजाया है वह हां कीतनेक देवी देवता मुफतके माल खाते हैं वह सुख दुःखमें इतनाही काम नहीं देते है वह जरूर कृतघ्नी है में तो कृतज्ञ हु ईत्यादि सवाल उत्तर करके देवी अपने स्थानकी तर्फ गमन करती हुइ अब सुनिये सज्जनों सेठजीके कर्म कीस रीतीसे उदय होते है।
शुभे आठ बजे कि जिक्रहै सेठजी के पुत्र दुकानपर बेठेथे ईतने में कोइ विदेशी वैपारी झवेरायत लेके आये थे परन्तु उस्के हासील चोराके आये थे. वह वैपारी सेठजीकि दुकानपर झवेरायत बतला रहे थे । इतनेमें तो खबर करते हुवे दाणी आ पहुचे. उसे देखतेही वैपारी लोक तो कसक मूलकि फाकी ले बाइस दोडा तेतीसे मना गमें ओर उनके बदलेमे सेठजी के लडके पकडे गये थे वात भी ठीक हे कि कर्मोदय होते है तब कह पुच्छके नही होते है बस वह दाणि सेठनीके पुत्रोंको पकडके कोतवलीमे ले गये उस वख्त कोतवालीमे दो तीन मुकरदमे हासलकि चोरीका ही चल रहा था. दाणीजनने सोचा कि अगर ईसपर सक्ताइ न कि जाय तो सब लोक हासल चोराया करेगा जिस्का फल मेरी गलती कशुर पाया जायगा एसा सोच सबपर हुकम लगा दीया कि जितेन लोगोने हासील चोराया है उन सबका घर माल जपत कर दिया जाय, तदानुसार सेठजी के घरपर भी जपति मा
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(१५)
गइ । सुरसुन्दरी पहलेसे सात लालो (रत्न) प्रत्यक सवाक्रोड कि किंमतकि थी उसे अपने पुरांणे वस्त्रके अन्दर पकी बन्धके वेसे ही पुराणे वत्र धारण कर रखा था चीपडासीयोंने सब घरके मालखजांनोपर सील कर सेठजीको और सेठजीके सब कुटुम्भवालोको घरसे निकाल दीये । घर दुकानों सरकार अपने कबजे कर ली विगर भोजन किये भुखे सव लोग नगरीके बाहार आये इतनेमे ग्यारा बजे चीठीोंमे दिसावरी समाचार आये कि सेठनीकी दीसावरकी दुकानोपर गुमास्तारोने उंधा ताला लगा के माल ले भाग गये है श्यामका च्यार बजे समाचार मीला की समुद्र मेचलनेवाली सेठजीकी जहाजो पाणीने डुब गइ है सजनो आठ वजेसे च्यार बजे याने छे गाटेके अन्दर सेठजीका एक अबज और पैतीस क्रोड सोनइयाका मंमला खलास हो गया था. यह कथा आम दुनियोंको बोध कर रही है कि कोई भी इन्सान धन मद न करे धन पाके मुजी न बन बेठे धनके लिये अकृत्य न करे. यह लक्ष्मी चंचल है अगर कहा जाय तो एक कविने लक्ष्मी कों उपालंभ दीया था कि हे वैश्या तेरी यह ही प्रीति है कि जीस्के घरमे वन्सपरम्परासे निवास कीया जो पुरुष तेरे लिये तनतोड महनत करते है धर्म कर्म शरीरकी दरकार नहीं रखते है उस चीरकाळकि प्रीतिकों छ घंटेभे तोडतों क्या तेरे दीलमे तनक भी रहमता नहीं आई इस वास्ते ही महात्मा लोगोंने तेरा तिरस्कार कीया हे क्या हे लक्ष्मी और भी तुं दुनियोंको मुह बतलाने लायक रही है इसपर लक्ष्मीने कहा कि हे कवि जिनोका वन्सपरम्परसे चला भाता रवेज माफीक कार्य करनेमे मुग्ध कवि क्यो खीज उटता है क्या यह हमने नवा रवेज डाला है या
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(१६)
हमारी परम्परासे चला आता है क्या मेराही कसुर तुमने नीकाला है मेरे भाइका स्वभावको भी तृमने देखा है कविने पुच्छा कि तेरा भाइ कोन है लक्ष्मीने कहा कि मेरा भाइ हे सूर्य उस्का भी स्वभाव प्रत्य समय भ्रमन करनेका ही हैं मे भी उस्की बहन हु तो वह स्वभाव मेरेमे हे इसमे कवियों का कलेज क्यों जलते है और जो महात्मावोंने हमारी तोयन करी भी है तो इनसे होता है क्या ! क्या कोई हमारा महात्व दुनियोंमे कम हो गया असंख्य जीव हमारे पेरोमे आके सिर झुकाते है इतनाही नहीं बल्के वडे बड़े झटाधारी मठधारी वनवासी वस्तीवासी कहजाते हुवे महात्मा भी तो हमारा आदर करते है हमारे विगर दुनियोमे पृन्छते हे कौन ? अरे निर्लज कवियों तुम भी तो हमारे ही उपासक हो तुमारी कविताओंका प्रयत्न भी तो हमारे लिये ही हुवा करते है देखीये
विद्यादृद्धास्तवोवृद्धाः ये च वृद्धा बहुश्रुताः सर्वे ते धनवृद्धस्य, द्वारि तिष्टति किङ्कराः ॥१॥
यह श्लोक श्रवण करते ही कवि के सिरकि गरमी शान्त हो गइ । सेठजी सकुंटुम्ब भुखे मरते हुवे नगरी के बाहार चिंतातुर हो सोचने लगे कि अब क्या करणा चाहिये जब अपने ज्येष्ट पुत्रको बुलाके बोला कि तुमारा लग्न समय तुमारे सुसराजीने नौकोड सोनइयोका द्रव्य दीया था, वह अच्छे प्रेम प्रीतीबाले है और धानाढ्य भी है तुम अपने सासरे जावो और अपना हाल सुनाके कहो कि इस बख्त हमारे सिम्पर आपतियो श्रा पडी हैं वुच्छ हमको सहायता
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(१७)
तो हमारा निर्वाह हो सके इत्यादि यह सुन महिपाल अपने सासरे गया आते हुवे बहेनोइजी को देख सालाजीने बहुत आगत स्वागत करी महिपालने अपना हाल सुनाके कहा कि आप अपने पिताजीसे अर्ज कर हमे द्रव्य सहायता दीरावे लडका अपना पितासे सब हाल कहा साहुकारने कहा कि खबरदार एक पैसाका भी हांकार मत्त भरना अगर अपुन लाख दो लाख देंगे तो भीइनोंके खरचाके आगे कोनसी गीनतीमें है फीर पीच्छा लेनेको क्या है इत्यादि श्रवण कर सालाजी वापिस आके बोलाकि बेनोइजी साब आपको नरूर मदद देनेका हमारा विचार था परन्तु क्या कीया जाय मुनि मजी तीजोरीकी चाबी अपनी साथमे लेगये वह आनेपर आपको हम कहला देंगे इत्यादि सफायोंकि बातें सुन बेनोइजी समज गये कि आज अपना रिन फीर गया है नहीतो यह ही लोग नौकोड द्रव्य दीयाथा इसी मोफीक दुसरा तीसरा चोथा लडका अपने सासरे गये परन्तु एक फुटी बदाम भी न मोली. वाह ! " कर्मराजा तेरी लीला" बाद अपने सगेसंबंधी या सेठजी जीनोपर महान् उपकार कीयाथा उनोके वहां भेजे खरची जीतने पैसे छेक एकदिनके भोजनकि सामग्री तक न मीली. सजनों! जीव राग द्वेष विषय कषायके लिये कर्म बन्धते समय यह विचार नही करता है कि मुने भविष्यमें इस कर्माका फल भोगवना पडेगा परन्तु जब यह कर्मोदय होते है तब सेठजीकी माफीक दशा होती है क्या सेठनी नगरीमे एकदिनके भोजनके भी योग्य नही थे? क्या उनोंके सगेंस. बन्धी पसे निष्ठुर हृदयवाले थे? परन्तु उनका क्या कसुर है कसुर है सेठजीके पूर्वोपार्जीत कोका इसे श्रवण कर कर्मबन्धके कारणोंसे सदेव वचते रहना ही सुखका कारण है यद्यपि सुर सुन्दरीके पास बहुमूल्य रत्न थे परन्तु वह समजतिथी कि इस बस्त हमारे काँका बहुत जोर है अगर वह लालो निकाली
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(१८) नावेंगा तो और भी केइ कोस्मकि आपतियों आ पडेगा जेसे मनुष्यको चढता बुखारमे कीसी प्रकारका इलाज करना दुःखका ही हेतु होता है.
क्षुधापिडिन सेठजी वडे ही विचार सागरमे गोते खाना सरू कीया कि अब करना क्या. यहां रहने मे ता खराबों के सिवाय कुच्छ लाभ नही है तब सब जिणो कि सलाहाले के रात्रीमे करीबन साढा तान बजे वहांसे रवाने हुये कर्म योग वह रात्री भी अन्धारी थी वह सुख नाहीवी भोगवनेवाले अमीर शरीर उम्मर भरमे कबी पैदल चले हुवे नही थे ऐसी भुख भी कवी देखो नही थी रात्री मे चलते समय उन सेठ सेठाणी के सुमाल शरीर कों वडी भारी तकलीफे होती थी उस समय उना नेत्रोसे आंसु.
ओं के मारे गंगा जमुना नदीयो चलनी सरूमी गइ थी वह ध्यारो सुरसुन्दरीयों जिस्के कोमल पावों में कैटे लगते थे तब रक्त कि धार छुट जाति थी जंगल के छोटे छोटे झाड कांटे के समुहसे मानो सेठजो के कुटुम्ब के लिये एक कीस्म के दुशमनो कि फोज ही न बन बेठ हो च्यारो कुँवरजी रात्री मे चलते पत्थरो से ठोकर खा खाके जमीनपर गिर पडते थे सासुजी बहुजी को पुकार करती थी देराणी जेठाणीजी से पुकार करती थी बाप बेटा से पुकार करते थे उस समय का दुःख ईश्वर जानते थे या वह सहन करनेवाले लोग जानते है वह लोग यहां तक त्रास खा जाते थे कि इस समय हमारे पास कोई शखया विष नही है नही तो एक तनकमे हम इस शरीर का त्याग कर देते उस विकट रहस्ते में सुरसुन्दरी सबको कहती थी कि हे पूज्यवरो आप समजदार हो इतना कलेश क्यो करते हो यह तो अपने बन्धे हुवे कर्मोंका दोष है और कीसोका नहीं है देखीये भगवान् रामचन्द्रजी लक्षमणजी माता सीता ऐस बनवासमे ही अपने दुर्जन कर्म से नय पाह थी राजा हरिश्चन्द्र और तारा राणीने साहसीकता से
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२ (१६)
दुष्ट कर्मों का नाश कीया था. और भी अवतारोक पुरुषों ने भी घोर संकट को सहर्ष सहन कीया था तो आप क्यो इतना दुःख करते है कवियोने भी कहा है कि " हिम्मत किंमत होय विन हिम्मत किंमत नही. ज्याने आदर करे न कोय रद्दी कागद ज्यु राजीया" मला आप सोवीये क्या रूदन करने से अपना संकट चला जावेगा इत्यादि दिलासा दे देके रहस्ते चला रहीथी इस दुःख कि खपर भगवान् सूर्यको भो मील गइ थी वह भी अपना प्रकाश उदयाचलपर चिलकाने लग गया मानो सेठजी के दुःखमें सहायक बनके ही न आया हो! अब सूर्य कि उगाली होतेही सेठजीने सोचा कि कलके तो सब भूखे है परन्तु आजके लिये क्या उपाय करना चाहिये क्यो की हम कोसीके महमान तो है नही कि जाते ही भोजन करवा देगा च्यारे पुत्रोको बुलाके कहा पुत्रोने भी सोचा कि अब क्या करना ? बहुत देर विचार करके सुरसुन्दरीने कहा कि क्या करे क्या करे क्यों करते हो इन सेठ सेठाणीजी को तो धीरे धीरे चलने दीजिये और अपुन माठो जनें इस जंगलसे इंधणवलीते की मूलीये बन्ध ले तांके भागेके ग्राम मे उसे विक्रय कर उदर पुरणा करेगे यह बात सबने मंजुर कर एक पाहाड कि आगोरमे गये वहां देखा जाये तो बडे बरे कटक झारथे उसके कटें भागने में इतनी तो तकलीफ हा कि मानो एक शूली सी वेदना हो रही थी परन्तु करे क्या पेट तो भरना ही परता है कविने कहा है कि-शीशको शोभाको केश दीये, दोय, नयन दीये जिन जोवनकों, पन्थ चलनको दोय पाप दीये, दो हाथ दीये दान देननको, कथा सुननको दोय कान दरीये, एक नाक दीया मुख शोभनको कर्मराज सब ठीक दीये पण एक पेट दीया पतसोवनको ॥१॥ और भी कहा है कि "हाबी हुकारो हाजरी चाकर वेगार और वेठ-देश दिसावर नोकरी, मब हो पेट को भेट" इत्यादि दुनियो मे सबसे निच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( २० )
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काम भी यह पापी पेट करा सकते है कहांतक उस दुःखं कि वात कहे मण मण मोती पहरती, सोने भरती भार, वह नंर जंगल विचमे, दुःख सहते निरधार " ज्युं त्युं कर उनोंने छाणे लकडी एकठी करी परन्तु उसे बन्धे कीससे तब ओरतोंने तो अपना आदा चीर फाडा और मर्दोंने पगडी से आदी पगडी फाडी छाणों की पोटो व्यारो ओरतो के सीर पर और लकडीय का मूली मर्दों के सिर पर उठाइ । पाठकगण ! सोचिये जिस भाइयों के भँवरीये पढोमे तेल फूल अन्त्र के साथ श्रृंगार और जिस युवा ओरतों के विशाल लम्बा कोमल बालों का अमूल्य रक्षण और सिरपर रत्नजडित के बोर पटी चंद सूर्यादि गहनों से भूषीत थे वहाँ आज छाणे लकडीयोने अपना मकान बना रखा है धिक्कार है कर्मों तुमको कुच्छ सरम भी नही है. करीबन् इग्यारा वजेकी टैम हो गइ है सूर्य ने अपना प्रचंड तापको क्रूर बना रखा है दो दिनों के भूखे प्यासे है पैरो में उनके पाणी छुट रहा है रक्त की धारो चल रही है पग पगपर मुर्च्छा आ रही है निर्दय मूमिने भी अपना प्रबल तापसे रेती को तपा रखी है इस संकट पन्थ को पीछाडी छोडते छोडते एक छोटासा ग्राममे बह जा पहुंचे वहां पर कीसानोंके कुच्छ घर थे सब ग्राममें वह छाणा लाकडी ले के फीरे परन्तु वह कीसान लोग मूल्य देके बलीताकबी लीया भी नही था उनका तो घर भी बलीतारूप ही है उस समय भी उन सबको निरास होना पडा था. इतना ठीक हुवा कि asiपर कोइ वणिक पुराणी जवार वेचने को एक गाडी लाया था वह उस दशो जीणोर्को निराधार देख विचार किया कि यह कोइ भाग्यशाली आदमि है किन्तु कीसी कारणसे इनोको संकट पडा होगा यह सोच दीलमें दया लाके उसे कहा की हे बन्धुओ ! इस लकडी छाणो की तो हमे जरूरत नही है किन्तु तुमारी दीनता पर हमे करूणा आति है इस काष्ट को यहां डाल दो हम तुमको
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(२१) घडीभर ज्वार देगें बस इतनेमे वह सब सदन करते उस मूली छाणाको वहां डाल के उस पूरांणी ज्वार को लेके ग्राममे चले एक बुढीयासे घंटी जाची किन्तु चकी चलाना कौन जाने उनोने अपनि नीन्दगीमे चकी देखी भी नहीं. परन्तु कर्मराजा सब काम कराते है! पाठकों जमाना हालमे महात्मा गांधी जैसे अपने हाथो से अनाज पीस रोटी बनाके खाते है यह नसियत इस जगाहा बडी कामकी है। खेर उनोने उस पुरांणी ज्वार का दलीया बनाया घतदुद्ध दही सकर मशाला पाक पकवान तो दूर रहा परन्तु उस दलीयामे नमक तक भी कहांसे लावे.जबदलीया तैयार हो गया तब उस बुढीयासे जीमने के लिये थाली लोटा मांगा तो वुढायाने कहा कि मेरे ओरडे के तालाकि कूची मेरी वह ले गइ है वास्ते थाली लोटी मेरे पास नहीं है यह भैसके भांटा देनेका मटीका बरतन है चाहे तो इसे ले लिजिये । सोनेके थाल चांदीके कटोरे सोने चांदीके लोटे गीलासे के उपभोग करनेवाले आज • मटीके बरतनसे भी संतोष करते है अरे धनाच्यो इस बख्त यह सोचोकि सबक एक दशा नही हुवा करती है वास्ते उस ठकुराइ को बखतमे कुच्छ सुकृत करलो नही तो आपका गमंड एसे समय पर रहनेका नही है खेर जैसे तैसे भी अपने पापो पेटको भरा। बाद दूसरे दिन भी यह ही गति हुइ इसी माफीक महान् दुःखका अनुभव करते हुवे प्रतिदिन नये नये ग्राम देखते जा "हे थे. सुरसुंदरिके पास लालेतोथी परन्तु यह विचक्षण यह सोचाकि इस बख्त छोटे छोटे गामडे है यह कोई मेरीलालेका ग्राहाक तो है नहीं और अबी वी जावेगा तो दोचार आनोमे वेच खाजावेगा और दो चार आनोसे होनेवालाभी तो क्या है हां कोई बहानगर आवेगा तो इसे बेचके हम सब सुखी होगें इस विचारसे दरकुचे दर मजले चले जा रहे थे उन महाशयोका शरीर मानो कजलसे भी श्याम पर गया था हजामतके केसे योगियोंकि माफक बढ गये थे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( २२ )
कपडा मानो बिलकुल जिर्ण हो गये शरीर निस्तेज और कमजोर हो गये थे सुरसुन्दरी सबकों दीलासा विश्वास और हिम्मत दे रही थी एसे करते करते छ मासमें एक कंचनपुर नगर आया उस नगर के बाहार शितल छाया और जलसे आरामकारी बगेचा था उसके अन्दर वह दशोंजणे कुशलता से पहुंच गये नगरकी छटा अच्छीथी दुरसेही रमणिय दीख पडता था बडे बडे मन्दिर मकानायत और सेठ साहुकारोसे प्रमुदित था. सुरसुन्दरोने सोचा कि यह नगर विशाल है वास्ते मेरे लालोका यहां जरुर ग्राहक होगा आप पेसाबादिका कारण बतलाके दुर जा उस सात लालोसे एक लाल (रत्न) निकालके सुसराजी के निजर करी और बोलीकि हे सेठजी में आपके घर से ग्रह लाल लाइ हुं इसे इस नगर में वेचके अपने मकानादिकी तजबीजकर लिजिये लालकों देख सेठजीने सोचा कि देवीका कहना सर्व सत्य है यह मेरी बहु वडी भाग्यशाली है चतुर है समयदक्ष है धन्य है इस्की मातापिता और बुद्धिकों हे आर्य में समजता हुं कि तुं आज हम सबके जीवनमें बडी सहायता कर रही है इत्यादि सत्कारकर अपने पुत्रोंको बुलवाये और कहने लगे कि हे पुत्रों तुम हुसीयार हो चतुर हो ज्ञवेरातके वैपारी हो ज्यादा तुमको क्या शिक्षा देवे यह लाल सवाकोडकि है पांच सात लाख कम आवे वहां तक तो वेच देना अगर ज्यादा नुकशान होता हो तो गीरवे अडाणी रख इसपर पचासलन द्रव्य ले एक मकानकी तपास कर कोराये या मूल्य ले दो तांगे हमारे लिये भेज देना तांके हम सब आजावेगा फीर यह वैपारादि कर अपने दुःख के दिन निकाल देंगें । इत्यादि भलामण दी कि अपने दिन आज कल ठीक नही है वास्ते हुसीयारीसे काम करना. च्यारो पुत्र खुसी हो उस लालको ग्रहन कर नगर में चले जहां झवेरी बजार है वहां आये वहांपर एक मुमण शेठ अपनि दुकान पर बैठा था वह केसा था इसके लिये कवि कहता है कि । " उंचा
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(२३)
मकान फीका पक्कन मोटासा पेट लम्बासा कान. जाडीसी गादी दीपकका उजाला केसरका तीलक कपुरकी माला छोटासा कपाट बडासा ताला. पांचसोकि पूंजी और साठसोंका दिवाला" वहां महिपालादि च्यारो भाइ उस सेठजीकी दुकान जाके लाळ पताइ क्यों सेठजी आपको यह लाल लेणी है सेठजी लाल हाथमें लेते ही चकित हो गये कि मेने मेरे जन्मभरमे पसी बहु मूल्य लाल नही देखी है और लानेवाले कोइ भीलसा दीखाइ दे रहे है यह भी तो कहांसे चुराके लाये होगे अगर इस्को न्यादा पुच्छ ताच्छ करेंगे तो इसका मालक सरकार बन जायगा इसे तो बहतर हेकि इस्को डबेमें डाल देना. शेठजीने तो तस्कर वृतिकर उस लालको डबेमें डाल ही दी वे च्यारोभाइ बोले कि सेठजी अपने लालका मूल्य भी नही कीया और डबेमे डाली तो खेर हमारा मूल्य दे दीजीये । सेठजीने अपने नोकरसे कहा कि इनको हलवाइकी दुकानसे पुरी आचार दीरवा दो. यह सुनके महिपाल बोला कि सेठजी हमारा असमान पताल एक होता है हमारे दुः. समें इतना ही आधार है एसे न करे हमारी लाल वापिस दे दे ! सेठजीने कहा कि कोनसी लाल क्या बोलते हो क्या तुम लाल के योग्य होहमने तो तुमारी लाल देखी भी नही है इत्यादि बोलने के साथ ही वह च्यारो भाइ रुदन करने लग गयो बहुतसे आदमि एकत्र हुवे सेठजीने कहा कि मेतों इस गरीबों को पुरी आचार दीराणेकि निष्पत् बुलाया था इसपर भी इनोंने मेरेपर लालका मुटा आक्षेप कीया है में अबी पुलीसको लाके इनोको रोक दूंगा बस महान् दुःखसे दुःखीत हो वह च्यारोभाइको लालसे हाथ धोना परा. इसपर उन च्यारों माइयोको बराभारी दुःख हुवा और दिलमें यह विचार पैदा हुवा कि अपने पिताश्रीने इतनि हित शिक्षा देनेपर भी अपने हाथोंसे लाल गमादी तो अब जाके पितादि को मुंह कैसे बतलाये इस कुविचार से वह ज्यारो भाइ मुलखंडे के
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(२४) बजारमें जाके हमाली याने मजुरी करना सरु कर दीया। पीच्छो. डी वह मातापिता और ओरतों रहा देख रहे थे कि अबभी आवे अषभी आवे अगर कोइ तांगा आता देखते थे तब उन लोगोको बडी भारी खुशी आतीथी कि वह तांगा अपने ही लिये भेजा होगा दर असल तांगा आनेपर उसे निरास होना पड़ता था इस राहाराहमें सूर्यास्ताचलपर चला गया. रात्रीमें उस वनमे बेठे हुवे वह छेओ जीणे रूदन कर रहेथे दुर्विचार कर रहेथे कि वह च्यारे भाइ लाल वेचके क्रोड द्रव्य लेके भाग गये होगे हमे दुखीयोंको वह क्यों याद करते होगे कारण कि तृष्णा जगतमें महान, भयकर विश्वासघात दुराचार कराणेवाली है एक कविने कहा है कि "तृष्णा आग अपार, तृष्णा जग भिख मंगावे. तृष्णा अत्याचार तृष्णा सब ज्ञान भूलावे, तृष्णा करे फजीत तृष्णा ले केद करावे. तृष्णा कटावे सिस, तृष्णा नर नरक दीखावे, मात पीता और सजनों तृष्णा गीन न एक,ज्ञानसुन्दर समता धरो प्रगटे गुण अनेक" इस दृानसे रात्री व्यतित करी जब प्रभात हुवा तब सुरसुन्दरी दुसरी लाल लाके सुसराजीके निजर करी पहले कि माफीक सेठजीने सुरसुन्दरीका सत्कार कीया. और आप बजारमे जाने लगे तब सुरसुन्दरीने अपनि सासुसे कहा कि आप अपनि लजा छोड सेठ. नी के साथ पधारीये कारण पुरुषोंको पैसाका लोभ बहुत होता है एसा न हो कि पहले जो आपके च्यारो पुत्रोंने विश्वास दीयाथा बहुके कहनेसे सेठाणीजी भी साथमें गये. बजारमें चलते चलते कर्मयोगसे उस लेभागु सेठ कि दुकान पर जा पहुंचे सेठजी उस दूसरीलालको देख सोचा कि पक कानमे कुंडल शोभता नही था परन्तु जोडके लिये यह ठीक आ गया उसी धोखासे इनोकी भी लाल डबेमे डाल उनोका वडा भारी तिरस्कार कर निकाल दीया बह सेठ-सेठाणी भी निरास हो महान् दुःखसे दुःखीत हो अपना मुंह बहुओंके बतलाने मे लजित हो नगरमे चले गये। उन निराShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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(२५) धार बुढोको देख एक साहुकारको दया आनेसे उसको अपने वहां रख लिया सेठाणीको तो अपने चोकामें रखली और सेठनीको पोलके दरवाजे पर हाथमे माला देके बेठा दीया। पीछे रही हुए च्यारो ओरतें सेठ-सेठाणीकी राह देख रहीथी. परन्तु उनका समाचार तक भी न आया इस हालतमें उनोको वडा भारी दुःख हुवा और विचार करने लगी कि औरतो सब बातें तथा सुखदुःख सहन कर सकेंगे परन्तु इस तारूण्य अवस्थामे ब्रह्मचर्य व्रतका रक्षण कीस रीतीसे करेंगे इस बातका बडा भारी दुःख हो गया है इस पर तीनो सेठाणीयोंने सोच समज के कहा कि हे देराणि! हम लोग तो कुच्छ समजते नही है न हमको बचपनसे एसी तालिम मीलीथी अब हमारे तो आपहीका आधार है हमारा निर्वाह करना तुमारे हाथ है छोटा बडेका काम नही है यहांपर अकल हुसीयारीका ही काम है जो हमारा पति और सासु सुसरा हमको छोड गये है परन्तु आप एसी न करे हमारा तो धर्म ब्रह्मचर्य
और जीवन ही आपके आधिन है इत्यादि कहने पर सुरसुन्दरी बोली कि आप मेरे सासु तुल्य है अगर मेरेपर ही आप सब बजन डालना चाहाते हो तो मेरेसे बनेगा वह आपकि सेवा कर. नेको तैयार हु एक अपने अन्दर ही नही किन्तु पहले भी असंख्य सतीयोमे संकट पडा है और उन विकट अवस्थामें भी उन सती. योने अपना ब्रह्मचर्य रत्नको बराबर पालन किया है ब्रह्मचर्य के लिये महासतीयोंने अपना प्यारे प्राणोका भी बलीदान कर दीया था नेत्र और जबान काहरके मृत्युका सरण ले लीया था. है बुद्धिमति आप यह निश्चय कर लिजिये कि एकके कहने माफीक सबको चलना ठीक है कारण कषियोने कहा है कि "अपत्त बहुपत्त निवलपत्त पत्त बालक पत्त जाहार नरपुरीका तो क्या कहना पण सुरपुरी होत उनार' इस पर तीनों बहनोने हायमें हाथ दे वचन दे दीया कि हम तीनो आपके कहनेमे चलेंगे बस ! सुरसु.
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(२६) म्दरीने अपने पतिके वन थे उसको पहन कर मदि वेशको धा. रण कर बाकी भी तीनोको मर्दि वेश धारण करवा के एक लाल अपने हाथमे लेके चली बजारमे उसी सेठकी दुकानपर आके बोली क्यो सेठजी आपको लाल खरीद करनी है शेठजीने सोचा कि मेरे कानोमे कुंडल जलहल करता हो और सेठाणीके नाकमें नथ न होतों चन्द्रके पास राहुकी माफीक एक शय्यामे सुती हुइ सेठाणी झाखीसी दिखेंगा वास्ते यह तीसरी लाल भी ठीक आगह सेठजीने कहा कि वतलाइये कोनसी लाल है सुरसुन्दरीने कहा कि लालका क्या देखना है सवा करोडी लाल है पहला यह बत. लाइये कि वह वढीया लाल आप खरीद कर सकोगे या नही अगर खरीद न करसको तो हम पचास लक्ष दिनारमे गीरवे. भी रख सक्तीहु । इसपर सेठजीने शोचा के पहलेके दोनो करतो यह कुच्छ चलाक मालुम होती है परन्तु मेरे आगे इस्की क्या चल सकेगा. लाल गीरवे रखना ठीक है कारण कि इस्का कोई तोल मूल्य तो है ही नही जब छोडानेको आवेगा तब रकम तो ले लेगे और कमि लाल सुप्रत कर देगें इस हेतुसे सेठजी बोले कि इतना मूल्य तो हमारे पास नही है किन्तु गीरवे रख सक्ते है वस एक चीठी सेठजी लिखवालि एक सुरसुन्दर सेठ. मीसे लिखवालि. पचास लाक्ष दिनार दो आनाके सुतसे ले लीया और लालसेठजीको देदी एक अच्छा खानदानका मुनिम रख उसे कहा कि जावो कोइ अच्छा सुन्दर विशाल मकान खरीद करो या किराये लेलो. पुन्योदय मुनिमजी मकानकी तलासी करते थे इतने मे तो एक पांच खंडवाला विशाल सुन्दर मकान कोई दिशावरीका वीक रहाथा उस्की मांगगी च्यार लक्षकी हो रही थी. इतने में मुनिमजी पांच लक्षकी बोली करी फोर दुसरा कोई न बढनेसे वह मकान मुनिमजीके रहा. मुनिमः मीने कहा की सेठ सुरसुन्दरजीके नामसे लिख लिजिये, मकान
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(२७)
खाली करवाके द्रव्य दे दीया. यह बात सुन बहुतसे वैपारी लोकोने पुच्छा कि यह सुरसुन्दरसेठ कहाँका है. मुनिमजीने कहा कि यह चम्पानगरीसे आये है यहां वैपार करेगें. वेपारी लोगोने बडाही आदरसत्कार कीया. च्यारे ओरतोंने मदिरूपसे अपने ब्रह्मचर्यव्रत का रक्षण करती हुइ उस मकानके अन्दर निवास कर दीया. दो ज्यार नोकर चाकर रख बजारमें दुकान खोल दी. मुनिम गुमास्ता अच्छी तरहसे घूमधोखारबन्ध दुकान चालनी शरु कर दी च्यारो सेठ हो गये वह प्रतिदिन नगरके बहार हवाखोरीकों जाया करते ये. एक दिन मुनिमजी भी साथमे थे, बाहार जाते एक सोदागरके पास च्यार अश्व रत्न देखा. सुरसुन्दर शेठने कहाकि मुनिमजी आप इस सोदागरसे पुच्छीये क्या यह अश्व वेचते है एसा हो तो अपने खरीद कर लो. मुनिमजीने किंमत करवाइ तो च्यारोके पांच लक्ष दिनार किंमतकी मागी. अलबत्त मुनिमजी वैणक जातिके थे उसने सोचा कि वैपारी लोगों के इतना खरचेसे अश्व लेना कीसी प्रकारसे लाभदायक न होगा यह वात सेठजीसे अर्ज करी. सेठजीने कहा कि क्या मुनिमजी दाम आपके घरसे देने पड़ते है. यह सुन मुनिमजीने सोचा की मेरेको क्या नुकशान है मेरे पुत्रके लग्न समय बदोलीमें भी तो काम आवेगा पांचलक्ष द्रव्य देके च्यारो अश्व खरीद कर लीये. सुरसुन्दरादि च्यारो शेठ एलशुभे हवा खोरीको उसी अश्व रत्नपर स्वार हो प्रेकटीस करना शरु कीया. से ज्यार मासमें वह इतना तो अभ्यास कर लिया कि पांच पांच कोस जाके आ जाते थे. यधपि मदोंकि माफीक ओरतो अश्वपर नहीं बेठ सक्ती, परन्तु अभ्यास एक एसी वस्तु है कि कठीनसे कठीन कार्यको भी साधन कर सकते है. एक दिन सुरसुन्दरने विचार कीया कि अपने तो सुखमें है किन्तु अपने सासु सुसरे और च्यारो सीरदार न जाने कीस हालतमे है उसकि तपास तो अवश्य करना चाहिये. इस कार्य के लिये कीसोसे प्रीति करने कि
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(२८.)
नरूरत है यह सोच आप स्नानमजन कर वस्त्राभूषण धारण कर कम्मरके कम्मरपटातलवार पकेक बुरच्छी ले च्यारो जणे दरवारकि मुलाकात लेनेको राजसभामें गये. साथमें एक लाल भी ले गये थे, उस समय बहुतर खाप तेहोत्तर उमराव प्रधानमंडल और लोकोसे राजसभा चीकारबन्ध भरी हुइ थी उस्के अन्दर सुरसुन्दरादि च्यारो सीरदार खडे खडे सीधा ही दरबारके पास जाके खडे हो गये. दरबारने साचा कि यह कोई मेरे मातेत तो नही है कारणके मुजसे सीलामी या मुजरा नही कीया तो क्या कोइ मेरे बराबरी राजाओंके पुत्र है; परन्तु आये हुवेको सत्कार देना मेरी फर्ज है आतेके साथ ही राजा सिंहासनसे उतर हाथसे हाथ मीलाके अपने पास बेठा लोया. सुरसुन्दरने भी मुजरा कर वह लाल निजर करी. दरबार उस लालको देखते ही समज गया कि यह कुंवर कोइ सामान्य घरके नही है जो मेरे राजभरमें पसी लाल हमने आजतक देखी भी नही है तब दरबार धीरेसे पुच्छा कि आप कहांसे पधारे है मेरे योग्य कार्य हो वह फरमावे. सुरसुन्दरने उत्तर दीया कि पसेही फीरते हुवे आपके दर्शनार्थी यहांपर आगये है। दो तीनवार पुच्छने पर भी अलम्टलम् ही कीया. दरबारने आग्रहपूर्वक पुच्छा कि आप सच क्यों नही फरमाते हो, क्या हमारेसे कोइ गुप्त रखने की वात है. तब सुरसुन्दरने कहा कि नही साब आपसे क्या गुप्त रखे हम खुद ही गुप्तपणेसे नीकल आये है वास्ते आपसे पहले यह करार कीया जाता है कि आप कहीं भी प्रकाश न करे. राजाने विश्वासपूर्वक कहा कि आप निर्भय रहै तब कुंवरजीने कहा की हम चम्पानग. रीके जयशत्रु राजाके च्यारे पुत्र है. दीवानसाबकी खटपटसे हम गुप्तपणे वहांसे निकल गये कोइ भी राजमें रहेके कुच्छ रोज गुजारा करने कि गरज आपके यहां आये है राजा बहुत खुश हो उनों के खरचेके लिये प्रत्येक कुंवरको दो दो सुवर्ण मुद्रिका नियत कर दी.
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(२६)
सभा विसर्जन समय आठो मुद्रिकाओ लेके वह च्यारो सीरदार भी अपने मकानपर आगये परन्तु कहा है कि
नराणां नापितो धूर्तः, पक्षिणां चैव वायसः । चतुष्पदां शृगालस्तु, स्त्रीणां धृर्ता च मालिनी ।। १॥
इस नीतिवाक्यको चरितार्थ करता हुवा नापित ( नाइहजाम ) सीरदारोंके पीच्छे पीच्छे मकानपर आया ओर अर्ज करी कि हजुर में आपकि खीदमतमें हाजर हुं मेरे लायक कार्य हो सो फरमावे और एक लाल मुझे भी बक्सीस करावे. सुरसुन्दर ने जबाब दीया कि हजाम ! लालों कोइ झाडोके नही लगती है कि हरेकको दे दी जावे वह तो लालोंके योग्य होते है उनके वहां ही रहती है। नापितने कहा कि खेर आपजो चाहे वह समजे किन्तु एक लाल मुझे देनी ही पडेगी. सुरसुन्दरने कहा कि देनी ही पडेगी तो क्या तुमारे बापने यहां जमा करवाइ है. हजामने कहा कि जमा ही समजीये अगर इस बातमें खांचाताण करेगें तो में आपकि सुन्दर मायाजालकों पब्लिक करदुंगा तो आपको आपका असली रूप धारण कर राजाके अन्तेवर बन चुंघट निकालना ही पडेगा । यह सुनते ही कोपित हो सुरसुन्दरने हुकम दिया कि यहां कोई हाजर है, इस नापितकी सिरपोषी कर दीजिये. यह हुकम सुनते ही सेरसिंह सवासेरसिंह आदि सीपाइओने जुत्तेसे लाठीसे वेदोसे खवासजीकि स्वागत इस कदर करो कि बहुत दिन याद करीया करे अर्थात् खुब जोरसे मार पीट कर वहाँसे निकाल दीया. हजाम अपने घरपर आकं नमः कादिसे सेक कर कुच्छ देरके बाद कंचनपुर नरेश कामसेन राजाके पास आके बोला कि स्वामिन् ! आज तो आपकि सभा एक बडा आश्चर्य देखा था. राजाने पुच्छा कि कोनसा? नापितने कहा कि जो च्यारो सीरदार पधारे थे वह च्यारो ओरतें या
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( ३० )
राजाने कहा कि तुझे क्या मालुम नापितने कहा कि हमारी ओरत दुसरेके उदरमें रहे हुवे बालबच्चोंका ख्याल कर लेती है कि इस्के पुत्र होंगा या पुत्री तो क्या हम औरत और मर्दकि पेच्छान नही कर सकते है उनोंकि चेष्टा और नेत्रोंसे साफ पाया जाता था. राजाने कहा अगर एसा हो तो इस च्यारोको में परणके इनके साथ सुख भोगवुं. परन्तु एसा कोई उपाय बतलाइये तांके इनो कि परिक्षा हो खत्रासने कहा कि इस्में क्या उपाय ? यह तो सि. द्विम बात है आपका परिक्षा ही करणी हो तो कल ही अश्वारूढ होइनों को साथ लिजिये मर्द होगा तो आपके बराबरो चलेगा और ओरतें होगी तो मर्दोंकी माफक अश्व कबी नहीं चला सकेगी । इस वातको राजाने ठीक समज एक दीन राजाने कहा कि सीरदारो क्या आप वणियोंकि माफीक दिनभर घरमें पड़े रहते है सुरसुन्दरने उत्तर दीया कि हम तो सदैव हवाखोरी करीया ही करते है आपकि कृपा हो तो हम आपके साथ चलनेको भी तैयार है. यह सुनते ही राजाने अपने च्यार अमूल्य कंबोज देशके अश्व थे वह च्यारा सीरदारोके लिये तैयार करवाके बहुत से उमरावोंके साथ च्यारों सीरदारोको साथ ले दरबार हवाखोरीको जंगलमें गये. उन च्यारोने तो पहलेसे ही प्रेकटीस कर रखा था. राजाके साथे चलते चलते सुरसुन्दरने आंख चोराके अभ्वको एडी मारी तो चंचल अश्व राजासे भी आगे निकल गया इधर उधर फोराके वापिस लाया. उन अश्वोको अधिक संकट होनेसे रस उतर गया राजा देख उन च्यारो सरदारोंका बडा सत्कार कर अश्व देख नेत्रों से आंसु टपकने लग गये कि मेरे प्राणसे प्यारे अभ्वाँकि यह क्या दशा हुइ । यह सब दोष नापितका है खेर यह तो अश्वोंसे ही छूटका हुवा किन्तु इनोंको में अगर ओरतों कह देता तो न जाने मेरे राजमें कीतना नुकशान होता इस विचार से राजा कोपित हो नापितको खानगीमें बुलाके बोले रे दुष्ट ! तुमने यह क्या
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(३१)
धोखाबाजी करी. हजामने कहा कि खाविंद मेरी परिक्षा असत्य नही है किन्तु इन लोगोंने पहले में अभ्यास कर रखा था. आप मेहरबानी कर एक परिक्षा और करावे । राजाने कहा कि वह कोनसी ? नापिनने कहा कि आप बगीचे में सब लोगोंको मीजमानी देवे उस्में सब कीम्मका भोजन बनाव पुरुषों का यदस्वभाव है वह प्रथम मिष्टान पदार्थ जीमेगा बाद शाकादि चरका फरका खावेगा और ओरतीका स्वभाव है कि प्रथम शाकके झाल या चरका फरका बाके बादमें मिष्टान खावेगा आप अपने पास बेठाके इनोकि परीक्षा कर लिजिये । राजाने कहा कि ठीक है दो च्यार रोज के बाद सभामे सबकि मंजुरी ले राजाने धगेवाके अन्दर भोजनकि तैयारी करी सब उमराव तथा च्यारा सारदारोंको बुलवा लिया भोजन तैयारी होने पर सब लोग जीमनेका बेठा. गजा अपने पासमे उन च्यारोको बेठा लिये अब पुरुषगारी करनेवाले लोग पुकार करते हुवे छाबों हाथमे लिये फीर रहाथा. जिस्मे विदाम पाक पोस्तापाक गुंदपाक द्राक्षणक खोपरापाक नुकतीपाक चुरमो वैसण लहु पैटे गुंजे घेबर गुलाब जामनु रसगुला विदामकेहलवा दालकाहलवा इत्यादि कि पुरुषगारी तो च्यागे सीरदारोने करवाली बादमे मुरबा आया-बादमे शाक भुजीये पापड पकोटा मुरमुरी रामफलीये इत्यादि चरखा फरका आया उस बखत दरबार बोला कि इन सीरदारोके पहला रखो इस पर सुरसुन्दर समज गये कि न जाणे कोर तोतक कीया हो वास्ते बोलाकि इस बस्त हम यह तामसी पदार्थ लेना नही चाहते है आप दरवारके पुरषगारी करीये वसाधरसे आवेनी उधर नोकाल देवे और उपरसे बाये तो इधर निकाल देवे मोजन इतनी नो शीघ्रतासे किया कि राजा दो च्यार प्रास लिया इतनेमे तो सुरसुन्दरने कहा कि क्या महाराज चलु करें. राजा सुनक विचारमे पहा कि मेने हजारो हायो द्रव्य भी बरच किया परिक्षा भी कुच्छ नहुइ और भुखे
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(३२)
मरना अधिक दुःख हुवा अब जो चलु न करे तो यह सीरदार जानेगा की क्या राजा डाकी है अगर चलु करदीया जाय तो क्षुधा सहन करनी पडेगा. बस राजाको जबरन् चलु करना ही पडा. सबकों रजा देने के बाद नापितको बुला के नग्न तलवारसे दरबार बोला रे नालायक तुमने मेरा कीतना नुकशान कीया आज तेरा सिर काट देना चाहिये। खवासने कहा कि खावन्दा मेरा सिर तो आपके हाथमें ही है आपको जरूर हो तब ही काटसक्ते है परन्तु एक परिक्षा तो ओर कर लिजिये । राजाने कहा कि वह कोनसी. नाइने कहा कि हजुर एक मेला भरा के उसके अन्दर दुकानोकी दो लेन लगाइजा जिस्मे एक लेनमें तो ओरतों के योग्य कजल टीकी सूरमा हींगलु चुडी कचकोली नैयवर हार बाजु पकडे याने वस्त्रमूषणादि ओरतो के श्रृंगार के पदार्थ रखा दीया जावे ओर दुसरी लैनमें राजपुत्रोके तलवार बन्दुक तीमंचा दुगोलीये बुरच्छी भाला छुरी कटारी इत्यादि फीर इनोकों साथमे लेके पधारीये अगर ओरते होगा तो अवश्य अपनि विषयके पदाको देखेगा और खरीद करेगा और जो राजकुंवर होगा तो तलवारादि पदार्थ लेगा यह सहज ही मे परिक्षा हो जायगा। ओरतो की लालचा वाला राजा इसी माफीक हुकम लगवा दीया लाखों क्रोडोका व्यय कर सामने सामने दोनो दुकानों कि लैनो तैयार करवादि और उमराव तथा उन च्यारो सीरदारोको साथ ले मैला देखनेको गये. सुरसुन्दर च्यारोको कह दीयाथा कि याद रखीये यहां कोई नापित कि जाल है में करू वैसा ही करना बजारमे प्रवेश होते ही सुरसुन्दर दरवारसे अर्ज करी कि गरीबनवाज यह तलवार हमको ले दीजिये एवं बन्दुक तीमांचा छरी कटारी इत्यादि देखते देखते सब बजारके अन्दरसे पार हो गये. दरबारने सोचा कि नापित झूटा है यह किसी प्रकारसे
ओरतो नही है फीर हजामको बुलाके दरबारने हुकम कीया कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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(३३) इस दुष्टको शूली दे देना ही ठीक है इसपर नापितने अर्ज करी कि हजुर आप मुझे शुली दो चाहे हमारे चचा बचेको मरवा डाले परन्तु मेरी आमा यह कबुल नही करती है कि यह च्यारे पुरुष है में दावा के साथ कह सकता हूं कि यह च्यारो ओरतो है अगर मेरा विश्वास हजुरको नहो तो एक अन्तिम परक्षा ओर कर लिजिये । राजाने कहा कि वह कोनसी? नापितने कहा कि आपके जो रत्नसुन्दरी बाइ बडे हो गये है उसकी सादि इसके साथ कर दीजिये । राजाने सोचा कि अगर चम्पानगरी के राजाके पुत्र है तब तो मेरे बाइकी सादि करना ही है और ओरतो होगा तो इस परक्षामें तो अवश्य खबर हो ही जायगी। इस विचारसे दो च्यार दिनोके बाद दरबार प्रधानजीसे कहा कि आप जावो अपने रत्नसुन्दरीकी सादि सुरसुन्दरजीके साथ कर दे. यह सुन प्रधाननी सुरसुन्दरजीके मकांनपर आये और सभ्यतासे अर्ज करी कि आप पर दरबारकि पूर्ण कृपा है दरबार आपनि कन्या आपको देनी चाहाते है वास्ते उस कन्या रत्नको आप स्वीकार करके हमे कृतार्थ किजिये. इसपर सुरसुन्दरने कहा कि बहुत अच्छा है दरबारकि हमारे पर अनुग्रह कृपा है परन्तु इस बख्त हम लाचार है। कारणकि हमारे देशमें यह रवेज है कि जिस्के पिता मोजुद हो वह लडका अपने हाथोसे सादि कर लग्न कर ले वह उत्तम उच्च कुलीन न माना जाता है उस मर्यादा पालन के लिये इस बख्त में दरबारके हुकमको स्वीकार नही कर सकता हूं यह सुन प्रधानजी दरबारके पास माये सब हाल सुनाया. दरबारने सोचा कि यह कोइ वाडा चातुर है स्यात् नापितकि बात सच तो न हो जाय । दुसरी दफे और प्रधानजीको भेजाकि कुंवरसाबको अर्ज करो कि आपके देशका रीत रवेज मर्यादा वहां ही काम भाति है भाप नितिके
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(३४) जानकार होने पर एसा अयोग्य वरताव कीस वास्ते करते हो इत्यादि प्रधानजी सुरसुन्दरके पास आये दरबारका सब हुकम सुना दिया सुरसुन्दरने सोचा कि मुझे तो कोइ हरज है नही जैसे दरबारकि मरजी वस सगपण कर दीया योशीयोंको पंडितो को बुलवाके जल्दी महुर्त लग्नका देखाके दोनो तर्फ रंग राग महो. त्सव होने लगे बजारके वैपारी तथा राजाके मुत्सदी लोग सुरसुन्दरकि तर्फसे जांनीये तैयार होने लग गये हजारो नही लाखो रूपैयोका खरच हो रहा था याचको को दान सजनो को सन्मान होते हुवे सुरसुन्दर हस्ती पर अरूढ हो तोरण पर आ रहा था यह अनुचित वरताव देख सूर्य अपना वैमान ले के अस्ताचलकि तरफ चला गया कारण उत्तम आदमि अनुचित कार्यमे अपनि साखसी कभी नही डाला करते है तोरण पर सासुजो आरणकारण आदि रीत कर कुंवरजीको चोरीके अन्दर ले गये जब रत्नसुन्दरीके साथ हथलेवा जोडा उस बख्त कुंवरजीने अपना हाथ इतना तो जोरदार बना लीया था कि अच्छा मर्दका हाथको भी तोड सके तो रत्नसुन्दरीकी तो कोतनीक वतथी ब्रह्मणोने अनेक श्रुतियोंका पठन कर जवादि होम कर उन दम्पतिको आशिर्वाद दीया दरबारने बाइजीके हथलेवामें कन्यादान करते हुवे बहुतसा द्रव्य या राजमें भाग दे के हथलेवो छुडायों तत्पश्चात् दम्पतिको सुन्दर महलमें जो पुष्पादिसे तैयार करी शय्यामें भेज दीये. सुरसुन्दरकि कसोटीका समय आ पहुंचा है देखीये अब कीस रीतीसे पारक्षा होती है सुरसुन्दरने सोचा कि “ अकल अमोलक गुण रत्न अकलो पुच्छे राज । एक अकलकि नकलसे सब हीसुधरे काज" छपर पलंगपर सुरसुन्दरजी विराजमान हो गये है इधर रत्नसुन्दरी पतिकी अभिलाष कर नाना प्रकारके वस्त्रभूषण काजल टीकी आदिसे शोलहा श्रृंगार कर सुरसुन्दरीके माफीक अपनि काम चेष्टा दीखाती हुइ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( ३५ )
विलास वन्दन और नैत्रोसे कटाक्षरूपी बाणको चलाती हुइ कुंवर साबके पास आइ रत्नसुन्दरी चोसट कला प्रवीण पतिका विनय भक्ति और मर्यादा कि जानकार होने से दोनो करकमल जोड अर्ज करी कि हे प्राणेश्वर । आपकि आज्ञा हो तो में आपके पलंगपर आवुं कुंवरजीने कहा कि इसी वास्ते तो मेने मेरे देश मर्यादाका त्याग कर दरबारकि आज्ञाका पालन कीया है परन्तु इस बख्त एक वार्ता मुझे स्मरण होती है ? पत्नी बोली की वह कोनसी ? कुंवरजी ने कहा कि पांच वर्षों पेश्तर मेरे काकासाहिबका लग्न हुवा था उनोंने गफलत से हमारी कुलदेवी कि मानता कियो विगर दम्पति एक शय्या के अन्दर सो गये थे उस पर देवीने कोप कीया तो इतना कि हमारे काका साहिबका नाभीके निचेका शरीर नष्ट हो गया था जिसे हमारे काकीजी साबको पति के साथ संसारीक सुखोंसे हाथ धो बेठना पडा था इस विचार से मुझे संकुचित होना पडा है परन्तु अब आपका सुन्दर स्वरूप देख मेरे से क्षणमात्र भी रहा नही जाता है वास्ते शीघ्र पाधारिये एसा कहके अपनि प्यारी पत्नीका चीर खेंच अपनि तर्फ आकर्षित करी. यह सुनते ही विचक्षण प्रज्ञावान्त रत्नसुन्दरीने सोचा कि जब एसी कूल देवी है और आपके काकाजीका यह हाल हुवा है तो मुझे संतोष ही रखना अच्छा है अगर स्वल्प कालके लिये पसा कीया भी जावे तो दीर्घकाल दुःख सहन करना पडेगा इस विचार से आप अपना चीर छोडाके बोली कि हे स्वामिन् आप तो खुद ही समजदार है में तुच्छ बुद्धिवाली दासी आपसे क्या अर्ज करू परन्तु आपको इस समय संतोष रखना उचित है आपके कूलदेवीका पूजन विगरह करके ही एक शय्यन पर एकत्र होना ठीक है यह सुन कुंवरजीने तो वारंवार हाथ खेचना सरू कीया कि देवी करेगा वह फोर देख लेंगे परन्तु आपके बिगर मेरेसे एक क्षण मात्र भी रहा नही जाता है आवे हमारी गोदमे
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( ३६ )
राजसुता धैर्यताको धारण कर बहुत समजाया कि आप इस समय आतुर हो रहे है किन्तु आपको भविष्यका विचार करना चाहिये अगर आपके काकाजीकी माफीक हो गया तो तांम उम्मर भर मेरा क्या हाल होगा में हरगीज इस बातको स्वीकार न करूगी बादमे कुंवरजीने कहा कि आपकि समजदारी अच्छी है किन्तु ओरतोमें विकलपणा प्रायः अधिक हुवा करता है प्रभातको आप निचे जायेंगे ओर वहां आपके सखीयों विगरह पुच्छेगा तो आप क्या कहोगे । ' रत्नसुन्दरीने कहाकि कुंवर साहिब क्या आप मुजे दाशी गोली या जाति कूलद्दीन अपठित मूर्ख ही समज रखी होगा कि में मेरी न्युनता वाली बातें कहुंगी हरगीज नही आपतो सर्व वातोंमे योग्य है किन्तु कीसी आदमिमे कुच्छ न्यूनता हो तो क्या उसे बाहार कही जाति है कुंवरजीने कहा कि तो फीर आपको सखोयो पुच्छेगा तो आप क्या कहोगे । पत्नीने कहा कि में कहूंगी कि मेरे पति वह ही सीरदार है एक तो क्या परन्तु पचास हो तो उनोकी अभिलाषा पूर्ण कर सकते है इत्यादि इस पर कुंवरजीने कहा कि यादा रखीये अगर इस्मे कुच्छ भी फरक पडा तो तुमारे हमारे आजसे ही फारगती समजना । वार्तालाप कर दूसरा पलंगपर पास होमें रत्नसुन्दरी शयन कर लीया वाते वातेमें कुकडे बोलने सरू हुवा कि रत्नसुन्दरी मुजरो कर निचे चली गई आगे खवासजी बाइजीकि इन्तजारीमें थे बाइजी आते के साथ ही सखीयोसे पुच्छाया कि बाइजी आपके हाथोकी मेंदीका रंग तो अच्छा आया है कहो गुप्त मजे की बातें ? बाइजीने कहा कि क्या पुच्छती हो मेने तो पूर्व भवमे अच्छे दीलसे ईश्वर पूजा करी थी कि इस भवमे मनो इच्छत वर मुझे मीला है इत्यादि सफाइकी बातें कह दी । यह बाते सब दरबार के पास गइ नापितको बुलवाके कहा रे पापीष्ट तुमने मेरा कीतना नुकशान कीया है पहले तो मेरे प्राणसे प्यारे
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(३७) च्यारो अश्वको मरवाये दूसरी हजारो लाखोका खरचा करवाके मोजमानी दीरवाह तीसरी दफे मैलाके बांने वजार के लिये लाखो कोडोका खरचा करवाया अब चोथी बख्त मेरे बाइजीको तेरे कहनेसे विगर पुच्छ गाच्छ परणानी पडी अब तेरा क्या कीया जावे राजा कोपित हों शुलीका हुकम कर दीया यह वात कुंवर साबको मालुम हो तो ही सोचा कि विचारा नापित सत्य होने पर भी मेरी चातुर्य से आज शुली दीया जाता है यह ठीक नही है तब कुंवरजी कहलाया कि इस नापितको निजर केद कर देना ठीक होगा. तदानुस्वार दरबारने नापितको निजर केद कर दीया. कुंवर साहिब ने सोचा कि अबी तक तो अपने सब काम ठीक ही ठीक होते है परन्तु अब ज्यादा यहां पर ठेरना उचित नही है परन्तु अपने कुटम्बको सोदके साथ लेना भी तो जरूरी है इस आशासे आप सदैव नगरमे गुमा करते थे. एक दिन वह च्यारो भाई अपनि पीठ पर सकरकि बोरीयों उठाइ है और सड़क पर चल रहे थे सुरसुन्दर उनोकी सूरत देख पैच्छाण लीये. तब मोदीको कहा क्यों मोदीजी हमारे घोड के दांणा अबी तक आपने भेजा नही है। मोदीने कहा कि गरीब नीवाज दाना तो तैयार है परन्तु मजुर आनेसे भेजुगा । कुंषरजीने कहा कि यह मजुर चल रहा है इनके साथ भेजवा दीजिये। मजरोने कहा कि दोलाहलबारके सकरकी बोरीयों डालके हम लेजायेंगे। राजाके जमाइका हुकम कोन नही मानता हैकुंवरजीने कहा कि पेस्तर हमारा दांणा पहुंचा दो सकरको परकीयो तो डाली सरकपर । और दाणा ले के कुंवरजीके साथ रखाने हुवे कुंवरजी आगे जाके दरवाजे वालोको सूचना करदी कि इस मजुरोको वापिस न नाना दो. वस । आप तो उपर बाके स्नान मजन देव पूजा कर भोजन कर लीया. वह मजुर दाणेकी बोरीयो डालके मजुरी मांगी तो दरवानोने कहा कि
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(३८)
ठेर जावो खजांनचीजीको आने दो घंटा दो घंटा हो गया जब महिपाल बोला कि भाइ क्या तुम नहि समजते हो कि " डाकणीयोके विवहामें नेतीयारोके भक्षण होते है तो यहां मजुरीकी आशाही क्यों करते हो चालीये बजारमे दुसरी मजुरी करेंगे." यह विचारके च्यारो चलने लगे तो दरवाजे वालोने रोक दीया कि तुमको जानेका हुकम नही है उस समय उनोको बहुत दुःख हुवा और जोर जोरसे पुकार करने लगे कि गरीबोके लिये एसा अन्याय क्यों हो रहा है एक तो हमारी मजुरीका पता नही दुसरा और भी हमारे लिये रोकावट करदो गइ है हम दरबारके नमाइजीको दयालु समजते है तो हम गरीब मजुरोके लिये एसा अन्याय क्यों होना चाहिये. इत्यादि उस पुकारको कुंवर साहिब सुनि. और बोले कि यह पुकार कोन करता है नोकरोने कहा कि वह दांणा लाने वाले मजुर है। कुंवरजीने हुकम दीया कि नावों उन सबको स्नान मजन करवाके मेरे चोकामें जीमाके मेरे पास ले आना यह सुनते ही नोकर गये उन च्वारोकी हजामत वगरह स्नान मंजन करवा कुंवरजीके चोकेमे उम्मदा भोजन करवाये च्यारे भाइयोने सोचा कि खेर मजुरी न मोल तो कुछ हरजा नही किन्तु दीर्घ कालसे क्षुधाके मारे पडे हुवे पेटके सल तो आज ठीक निकल गया है दुसरे भाइने कहा कि बार हा वर्षों से आज अपने घरकि माफीक भोजन मीला है दो भाइयोने दीलगीरी बतलाइ खेर वह भोजन करवाके चारो भाइयोको कुंवरजीके पास ले आये. कुंवरजीने पुछा कि तुम कोन हो कीस ग्राममें रहते हो वह पुछते ही चारे भाइयोके दीलमें दुःखके दरियावोंकि पाजो तुटके रूदन पाणी चलना सरू हो गया इतना कि एक घंटे भर वह बोल नही सका । कुंवरजीने कहा कि हे महानुभावों । दुःख सुख दुनियोमें हुवा ही करते है तुम गवरावो मत तुमारे दुःखकि वाते हमे कहोमें यथाशक्ति तुमारी सहायता करुंगा इसपर विश्वास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( ३६ )
कर वह चाराभाइ कहने लगे कि हे गरीब निवाज । हम हमारे दुःखोकि बातें मुहसे कह नही सकते है हम जाने या ईश्वर नाने. तद्यपि आप सज्जन पुच्छते है तो सुनिये हम चम्पा नगरोंके अन्दर धनदत्तसेठके पुत्र है हमारा विवशाय के बारेमे हम स्वश्लाघा करना नही चाहाते है किन्तु एक अबन पैतीसक्रोड सोनइयोका द्रव्य था वह अशुभ कर्मोदय छे घंटेमे बरबाद हो गये तब हम वहां से निराधार हो रात्री मे भाग छूटे तो रहस्ते कि कर्म कहानि कहां तक कही जावे इतना कहते ही च्यारो भाइयो को मुर्च्छा आगइ दुःख एक अजयब वस्तु है बात भी ठीक है एसा कोन मनुष्य बब्रहृदयवाला है कि एसे दुःख सुनते समय नैत्रोमे आंशु न आवेगा सावचेत होनेपर और बोले कि उस छे मास के दुःखको भोगवते सहन करते हुवे यहांपर आये हमारे यह लघुभाइ है इस्की ओरत सुरसुन्दरीने अपने घर से एक लाल लाइथी वह हमारे पीताजी को दी पिताजी हमकों बुलवाके खुब नशियत के साथ वह लाल बेचनेको हमे बजारमें भेजे यहां पर भी हमरे कर्मयोग एसा सेठ मीला कि वहलाल घोखाबाजीसे ले हमारा तिरस्कार कर हमे निकाल दीया उस बख्त दुःख के मरे हमे मुच्र्छागत अगइथी बस इतना कहके और मुच्छत हो गये. शितल पवन और जलसे साबचेत हो बोले कि बाद हमने विचाराकी अब जाके मुह कैसे बतलावे इस इरादासे हम यहां मजुरी करते है यह संक्षिप्तसे हमारी कर्मकथा है कुंवरजी सुनते सुनते केइ दफे नेत्रो से आंशु निकालेथे और विचर किया कि अहो कर्म अहो कर्म नमस्कार नमस्कार 충 इस प्रबल कर्मोंकों । खेर उन च्यारे भाइयोसे कहा कि अब क्या तुमको बजारमे वही मजुरी करना है या हमारे यहां रहोगें ? महिपालने जबाब दीया कि अगर आप हमे रखना चाहते हो तो हम बडी ही खुशीके साथ रह सकते है हमको तो रोटी कपडेकी मरूरत है कुंवरजीने कहा कि
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(४०)
आप च्यारोको पचवीस पचवीस रूपैयकी माहावारी तनखा और कपडे रसाइ हमारे सिर है वह च्यारो भाइ खुशी के साथ वहां रह गये है परन्तु उन च्यारे को प्रत्येक जुदे जुदे काम भोलादि या कि वह आपसमे एक दुसरे के साथ मील नही सके। कह दिनोके बाद अपने सासु सुसराजा को देख उनोको भी अपने मकानपर ले आये सब हाल पुच्छा तो बारवार मुरछीत होते वह ही अपना हाल कहा एक लाल हमारी यहां सेठने छीन लीथी उनोकों भी-खातर तब जा के साथ रख लिया. अपने मुनिमजीसे कहा कि उस मुमण सेठको बुलवाके उसके रकमका हीसाब कर रकम देदो ओर तीन लालो अपनि है वह उनसे मगवालो । मुनिमजी सेठको बुलवाके हिसाब कर रकम दे के बोले कि तीन लालो हमारी जो तुमारे वहाँ है वह भेजदे सेठजीने कहा कि हमारे पास आपके हाथ कि चीठी मोजुद है एक लाल हमीरे वहां रखी है सोलेलिजिये कुंवरजीने कहा की सेठजी तुम लखो पचाइडा करते है परन्तु मे पाछो कडाइडा पाठ सीखा हुवाहुं याद राखिये तुमारी नशे नशे सोध लुगा यह च्यारजीने कहते है यह दो बुडीये कहते है इस्की वातो को सुन सीधी रीतीसे लालों ले आवे सेठजी समज गये कि यहमाल पचनेका नही है वहांसे दुकान आके दोनो कुंडलोंसे लालो निकाल के घरपर तीसरी लाल लेनेकों गये. सेठाणीथी अपने बापके वहां सेठजी वहां जा के सेठाणीसे लाल मांगी तो क्रोधातुर हो सेठाणीजी वोली कि क्या तुमारे देवाला निकल गया कि मेरी नथपर आप काहाथ पडा सेठजीने कहा कि वह लाल है दरबारके जमाइजी कि वह रहनेवाली नही है सीधी रीतीसे देदो तो ठीक है नहीं तो क. पडा तक लीलाम करवा के लाल ले लेगा इतनासे सेठाणीजी बडे भारी नाराजी हो लाल फेकदी सजनो देखीये संसारका माजना स्वर्था कैसी वस्तु हुवा करती है ओरतोका यही स्वभाव हुवा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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(४१)
करते है। तीनों लालों सेठजीद्वारा कुँवरको पहुँच गइ । अब इंवरनीने सोचा कि यहां से कीस रीती से रवाना होना कारण पहले कहा था कि हम गुप्त रीती से आये है देखीये पाणीवाले इन्सानो की आपकि सब बातेपर आने देना पड़ता है। सुरसुन्दरने एक खत याने कागद-परवाना बनाया जिसमें लिखा कि रानराजेश्वरो श्रीमान् कामसेन नरेश कि सेवामे मु. कंचनपुर योग लिखी चम्पापुरी से जयशत्रु राजा का प्रणाम वाचना यहां कुशल तथास्तु विशेष अर्ज यह है कि हमारे च्यार पुत्र नाराजी से चले गये है आपके यहां आये सुनते है अगर यह बात सत्य हो वह कुंवरजी आपके वहां आये हो तो कागद देखतो के साथ तुरत रवाना कर दीरावसी हम आपका आसान समजेगे; कारण हम सब लोग कुंवरजी विगर बडे दुःखी है योग्य कार्य लिखावे इत्यादि समाचार लिख एक वृद्ध मनुष्य के शरीरपर रब लगा के कहा कि तुम बारहा बजे कि टैम में जब दरबार कचेरीमे आवे तब यह परवाना लेके आना । उस बुढे आदमिने एसा ही कीया वहां सब लोग उपस्थित थे उस समय सभामें लाके वह परवाना दीया दरवार प्रधानजी को दीया उनोने पढके सुनाया इतने मे कुंघरजी साब क्रोधातुर हो बोल उठे कि हम लोगोने मापसे पहले से ही अर्ज कर चुके थे कि आप हमारे पिताश्रीको सबर न दे। दरबारने कहा सा हमने तो कुच्छ भी खबर नही हीथी आजकाल आप नगर मे बहुत फीरते हो अगर आपके महांका कोई वीणजारा वैपारी आपको पीछान के वहां समाचार कह दीया होगा । हमने तो हमारी पुत्री देके पुत्र लिया है हमारे राज करनेवाला कोन है अर्थात् हमारे राज के मालक तो भाप ही है हमे क्या नुकशान थी कि हम वह समाचार कहलावे इत्यादि प्रेम की बातें हो रही थी उस समब कँवरजी बोला कि कुछ भी हो अब हमारा राना नही होगा वास्ते हमे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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(४२) मेहरबानी कर शीघ्र विदा कर दीजिये कारण कुलीन पुत्रों का यह फर्ज नही है कि बापके बुलाने पर भी न जावे दरबारने बहुत समजाया परन्तु वहां रहना कीसीको था. कुंवरजीने सोचा को यहां तक तो अपनी माया वृति चलगइ सब कार्य सफल भी होगये अगर ज्यादा ठेरे और राजसुत्ताको कबी जवानी के कारण काम संताने लग जावे तो इतना दिनोकि सब कारवाइ निष्फल हो जावे ज्यादा ताकीद करनेसे राजाने तैयारी करनि सरू करी जीस्मे हस्ती, अश्व रथ सेजगाडीयों पीजस पालखीयो पैदल संख्याबन्ध लावलस्कार फोज नगारे नीसान रत्न जेवर जबरायत रोकड इतना तो माल दीया कि कुंवरजी रहस्तेमे खुब खावे खर्चे दान करे तो भी उस्का अन्त न आवे । शुभ महुर्त अच्छे शुकन के साथ कुँवरजी को रवाना करते समय जो नीजरांणेमे कुँवरजीने लाल दीथी वह दरबार वापिस सीखमें देदी थी एवं सातो. लालो कुँबरजीके पास आगइ थी राजा प्रजा मब नागरीक लोक कुँवरजीको पहुंचानेको गये संसारमें रहे हुवे जीवोंको सजनोका विरह बहुत ही दुष्कृत है सब लोगोके नेत्रोसे आंसु पडना सरू होगया था महारांणीजी अपनि प्यारी पुत्रीको हित शिक्षा दे रही थी कि हे पुत्री ! अब तुं अपने सासरे जाती है तो वहांपर अपने सासु सुसुराओका विनय-भक्ति करना देरांणी जेठांणी नणंद आदिसे मधुर बोलना सबका मनको प्रसन्न करना तुमारे पतिके गुप्त कार्य रहस्य कार्य विनय सेवा भक्ति कर उनोको संतुष्ट करना तुमारे राजमें अगर कोई भी दुःखी हो उसे सुखी करना देव दर्शन. गुरुभक्ति साधर्मीयोसे वात्सल्यता ओर सुपात्रदान सदैव करती रहना गरीब अनाथकी सारसंभाल लेना बडा होने. का कारण यह ही है इत्यादि नेत्रोसे आंसु निकालती हितशिक्षा दे बाइको विदा करी राजा प्रधान ओर नगरके लोग बहुत दुर तक पहुंचानेको गये बाद अपना प्रेम स्नेह दरसाता हुवा वापिस
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(४३)
नगरकि तरफ चले.सुरसुन्दर एक महान् नरेशकी माफीक लाव लस्कार के साथ अग्र पयाण कीया एकेक जोजनकि मजल करता जन्मभूमिकि तर्फ चल रहा है रहस्तेमे जिस स्थलमे पुरांणे मन्दिर हो उनोका जिर्णोद्धार ओर जीस ग्राममे मन्दिर नही है वहां नया मन्दिर अनाथ भाइयोके लिये अनाथाश्रम विद्यार्थीयोंके लिये विद्याशाला और दानशालादि करानेसे पुन्योपार्जन करते हुवे क्रमशः चम्पानगरीसे एक जोजन दुर पडाव कीया उस लस्कार की रजसे आकाश छा गयाथा. ज्योतीषी मंडल भी त्रास पाने लग गयेथे। चम्पानगरीके राजाको भी बडा भारी क्षोभ होने लगा की यह कोन वैरी भूमिया राजा मेरेपर चढ के आया है इत्यादि इनोकि खरणी के लिये तजबीजे हो रही थी नगर लोक भी गभराने लग गयेथे. इधर बारहा वर्षोंसे दरबार खुद पैसीयो मुकदमे मीसलो तपास कर रहेथे पहलेही मीसल । धनदत्त सेठकी आइ तो उनोका घर हाट धनमाल सब जपत कर दीया गयाथा परन्तु उनोके अन्दर कशुर क्याथा इसकि कुच्छ भी तहकिकात नही ओर नही सेठजीके व्ययन. दग्बारने घडेही जोरसे दीवाण साब पर हुकम लगाया कि बुलावो सेठजीको उनका ब्ययन लिया मावे. दीवानसायने कहा कि सेठजीको तो बारहा वर्ष हुवा यहांसे दिसावर चले गये है। राजाने कहा कि वहां आप ठीक राजकि देखरेख करते हे हमारे नगरमे अग्रेश्वर सेठको आपने निकल दीया है इसका तो फल आप सबको फीर मीलेगे. मेरा हुकम है कि २४ घंटेमे सेठजीको हाजर करो वह सुनके दीवामादि सब सरकारी कर्मचरिय गभराने लगे और इधर उधर मादमियोको भेजे कि जहां हो वहांसे सेठजीका पत्ता लगायो । उदर कुँवरजी सेठ सेठाणोके पास आये और बोले कि क्या सेठजी! आपकि चम्पानगरी आ गइ है क्या आप अपने नगरमे जावोगें सेठजीने कहा कि महेरबान हमारे कमनसीब है कि
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(४४) हम फीर के इस नगरके अन्दर आये है नगरीमे जाना तो हमारा तब ही सफल है कि हमारे च्यारो पुत्र, च्यारो पुत्रोकि बहु और पहले कि साहयवी हो, नही तो हमकों मरजाना ही अच्छा है कुवरजीने कहाकि आपके बेठ बहुओ आ जावे तो कैसा? सेठजीने कहा कि आप मालक है मेरे दुःखीपर नमक क्यों लमाते हो हमारा एसा भाग्य हो तो जन्मभूमि क्यो छुटे बेठा बहुओका वियोग क्यों होवे इत्यादि दीन वचन सुनके सुरसुन्दर पल शुभे च्यार बक्ख उन च्यारो भाइयोको भेजा कि आप स्नान भजन कर वस्त्राभूषण धारण कर जल्दी तैयार हो जावे आज दरबारके मुजरे जाना है दो बक्त सेठ सेठाणिके लिये भेजा और आप भी स्नान भजन कर ओरतोका वनभूषण धारण कर तेयारी करली इस समय साइवान तंबु सबके अलग अलग था रत्नसुन्दरीका साइवान बिचमे अलग था सेठ सेठाणीके तंबुमे एक सिंहासन स्थापन कर उन दोनो देवताइ पुरुषोको याने सेठ सेठाणिको सिंहामन पर बेठा, के च्यारों भाइयोंको संकेत कीया वह च्यारो पुत्रो उधरसे आये इधरसे वह च्यारो ओरतो भी अपने तंबुसे निकल अपने अपने पतियोके साथ सेठजीके तंबुमे जाके सेठ सेठाणीके चरणकमलोमे शिर मुकाया उनो पुत्र ओर पुत्रोकि ओरतों को देख सेठसेठाणि सोचने लगे कि क्या हमको स्वप्ना आया है या कोई इंद्रजाल कि रचना है यह हमारा पुत्र और बहुओ कहांसे आइ यह सब हाल रत्नसुन्दरी देख रहीथी उसने सोचा-क्या मेरा पति ओरतका स्वरूप धारण कर नाटक करेगा यह क्या बात है इतनेमे तीन पुत्रोकि बहुओ बोली कि हे पूज्यवरो! हम सब उत्तम ऋद्धि और अपना कुशलता पूर्वक मीलाप होना आपके लधु पुत्रकी त्रि सुरसुन्दरीका ही प्रभाव है यह सुनते ही सब लोगोके आनंद मंगल से हर्ष के आश्रु आने लगे और छाती से छाती भीडा के अपने चीरकाल का विरह को शान्त कीया, आनंद मंगल के
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(४५)
वाणित्र बाजने सरू हुवा नगारा निशांन घुरने लगे. सब लवाजमाके साथ लस्कार वहांसे चम्पापुरी कि तर्फ विदाय हुवा एक दुत्तको आगे नगर मे वधाइ देने को भेजा था वह नगरपोल के पास आ रहा था इतनेमे दोवोनसाब का दुत्त सामने मीला कि भाप कहा जाते हो? मे जात्ता हु नगरमे खुशखबर देनेको कि आन धनदत्त सेठ अपने कुटम्ब ओर वडी ऋद्धि के साथ आये है। वह दुत्त बोला कि आप यहांपर ही ठेरीये. में जाके दोबानसाबकों इतला देता हु वस वह दुत्त नगरमे गया दीवानसाब को खबर होते ही दीवान राजाको खबर दी कि आपके सेठजी इस लाव लश्कर से आता है राजाने नगरको श्रृंगारा. सब नागरीक लोक वदावा सामग्री लेके सहागण बेहनो श्रृंगार कर सिरपर पूर्णकलश और मंगलीक गीत गावती हुइ माली लोग पुष्पो कि चंगेरीयों और फल फूल इत्यादि छतोसो कोम सेठजी के सामने गये राजा अपना लाव लश्कर पाटवी हस्तीपर आरूढ हो सब सरकारी कर्मचारिय दीवान प्रधान फोजदार हाकिम जमादार ओर लश्करी लोगों के परिवारसे सेठजी के सामने गया सेठजी के सगे संबन्धी लडकोंके सासरेवाले विगरे सरमीदे हो वह भी सामने गये. इतने तो लोक एकत्र हुवे कि पृथ्वीपर पग देने को स्थानतक भी मुश्केल से मीलता था वाजिंत्रोके मारा अमर गर्जना कर रहा था । आकाश चारी देव और विद्याधर भी दो घंटे के लिये गमत्त देखने को ठेर गये थे दरबार कि असवारी नगर के बाहार बगेच तक पहुंची इतनेमे सेठजीका बल आकाशमे गर्जना करता हुवा आया सेठजी दरवार को देख अपने हस्ती से निचे उतर दरवार के सामने आये दरबार भी सेठजी का बड़ा ही आदर सत्कार कर नगर प्रवेश कराया और उनो कि मकामायत विगराह सर्व धन सेठजी को सुप्रद कीया. चारण भाट याचको को सेठनीने अनगीत द्रव्य दे संतुष्ट कीया. नगर के सब लोग
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( ४६ )
सेठजी की मुलाकात करने को आये अपना अपना कसुर कि माफी मागी सेठजीने कहा कि आपका कुच्छ भी कसुर नही है कसुर है मेरे कर्मोंका, में आपसे भी यह ही अर्ज करता हु की कोइ कर्म न बन्धे न जाने वह कर्म कीस बखत उदय आवेगा इत्यादि नगर मे यह वात खुब प्रसिद्ध हो गइ कि सेठजी के संकटमे सुरसुन्दरी महासती बडी ही साहासीक पने के साथ अपने कर्म भोगव के यह ऋद्धि लेके निज कुटम्ब का मान बढाती हुई अपने घर मे कुशलता से आइ है । यह तो हुइ दिन कि बात अब रात्री मे तीनो भाइयो के औरतो तो अपने अपने महलो मे चली गई सुरसुन्दरी अपने पति सुरपति के मह लमे जा रही थी इतनेमें रत्नसुन्दरीने कहा कि आपतो सब आपने आपने खरे पतियोको ले महलमे पधारते हो परन्तु मेरा क्या हाल है क्या मुझे पाणीग्रहण करनेवाला सच ही वह कुँवरजी औरत सुरसुन्दरी ही है जबतक मेरे पतिका निश्चय न होगा. वहां तक में कीसीकों भी अपने पति के पास जाने न दुंगी यह सुन मनुष्यों को तो क्या परन्तु पासमे रही हुइ कूलदेवीको भी इसी आ गइ थी वह बाली कि वह सुरसुन्दरी तुमने तो सबसे अधिकार करी है एक देवांगना के माफीक राजसुताको भी ले आइ परन्तु अब मैं इनका इन्साफ कर देती हूं कि हे रत्नसुन्दरी तेरेको जो सुरसुन्दरी परणके लाइ है तो वह तो खुद ही ओरत है परन्तु कानुन यह कहता है कि सुरसुन्दरीका पति है वह ही तेरा पति है यह कहके रत्नसुन्दरीने सुरपतिके महलमे भेज दी कूलदेवी सेठ सेठाणी और सुरसुन्दरी आदि सब कुटम्बवाले से शिस्टाचार कर कूल रक्षण के लिये सदैव जगृत हुइ । सेठजीके वर हाटकि चावीयो आगइ दुसरे ही दिन वह दिसावर की दुकानो के गुमास्ता जो माल ले गये थे वह वापिस आके बोलाकि सेठजी हमारी नीत बदल जानेसे हम आपके माल ले गयथे परन्तु उस
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(४७)
द्रव्यसे हमारे बहुत द्रव्य हो गया है अब हमारा अपराध माफ कर न्याजसे आप अपनि रकम ले लिजिये! इतनेमे तो समुद्रके समाचार मिले कि जो समुद्र में जाहजो दुबी थी वह जाहनो अन्य वैपारीयोकि थी सेठजी कि जहाजोतो दिसावरमे गहथी वह माल वे. चके पुनः किरियाणा वरके जाहाजो दरियावके कीनारे आ पहुंची है इस पत्रोको तो सेठजी ओर सेठजीके पुत्र वाच रहे थे इतनेमे • पहलेके सब गुमास्ता आये ओर अर्ज करी की हे सेठ साब आपके संकटमे हम बहुत दुःखी थे आज तक हम सब लोगोंने घरकी खरची खाइ है परंतु कीसी दुसरेकी नोकरी हमने नही करी है कारण हम बडी इज्जत आबरूसे रहे हुवे अब आपके सिवाय कीसकि नोकरी करे वह सुन बडेही आदरके साथ सेठजी उसे पुनः गुमास्ता रख अपने अपने कामपर भेज दीयो, नगरमे राजमे तेजमे पंचमे पंचायतिमे वीणज्य वैपारमे सेठजीका मान, प्रतिष्ठा आदर सत्कार पहलेसे भी अधिक बड गया था पूर्वोपार्जित शुभ कर्मोका अनुभव करते हुवे सेठजी बहुतसे निर्धार अनाथ गरीबोको गुप्त सहायता दे रहेथे साधु साध्वी श्रावक श्राविका इस च्यारे तीर्थकी सेवा जैनतीर्थ जैनमन्दिरकी भक्ति ज्ञानाभ्यासके लिये पाठशाला विद्यालया और दानशालादिसे खुब पुन्य संचय कर रहैथे कारण पुन्य पापका अनुभव सेठजीने ठीक कर लिया था. कश्चनपुरके कीतनेक लोग वापिस कञ्चनपुर गये राजासे सब हाल कहा इससे राजा और भी खुशी हुवा कि बराबरीकाको पुत्री देना इस्मे कोह अधिकता नही है परन्तु एसे भाग्यशालीको देणेमेही कन्याकि कसोटी होती है, यहाँ आनन्द मंगलमें समय जा रहाथा. कुंवरजी कि आज्ञासे नापित कि निजर केर माफ कर दी गई थी.
उस सुअवसरपर भी मजगत्सुन्दराचार्य पांचसो मुनियों के परिवारसे प्रामानुग्राम विहार करते हुवे चम्पानगरी के पूर्णभद्रोपानमे विराजमान हुवे माचार्य श्री व्यार झान चौदा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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(४८) पूर्व धर वढ ही धैर्य गंभीरीय सुमति गुप्ती प्रतिपन्न भवभ्रमन करते हुवे भव्य जीवोको तारणेके लिये नौका समान थे।
इस बातकि सहर्ष वनपालक-राजाकों वधामणि दी राजा बहुतसा द्रव्य दीया बाद नगरको सुशोभीत कर च्यार प्रकारकि शैना और बडे ही आडम्बरके साथ सूरीजी महाराजको वन्दन करनेको गये इघर नागरीक स्नान मजन कर गृह देरासर कि पूजन कर बाहार जाने योग्य वख भूषण धारण कर केइ हस्तीपर केर अश्वपर केइ रथपर केइ मैना पीजसपालखी सेवाका युग. पात् तामजान ओर केइ पैदल भगवान् को वन्दन करनेको गये विधिपूर्वक वन्दन नमस्कार गुण स्तुति कर अपने अपने योग्यत्ता माफीक सब लोग सूरीश्वरजी की सेवामें बेठ गये । सूरीश्वरजी महाराज अपनि मधुर ध्वनिसे अमृत देशना देणी प्रारंभ करी । हे श्रोतागण! इस आरापार संसारके अन्दर अनेक जीव अनादि कालसे परिभ्रमन कर रहा है जिसके मुख्य कारण रागद्वेष विषय कषाय आलस्य निंद्रा विकथा मद अहंकार ईर्षा परनिंदा अव्रत मिथ्यात्व कुगुरु कुदेव कुधर्म कुशास्त्रपर श्रद्धा इन कुकृत्योंसे सूक्षम बादर निगोदमें यह जीव अनंतकाल भ्रमन कीयाथा कुच्छ पुन्यवान होनेसे पृथ्वी अप तेउ वायु इन च्यारों कायमे असंख्यात् काल जन्म मरण किया वनस्पति प्रत्येक साधारण सूक्षम बादर के अन्दर अनंतकाल रहा कुच्छ कर्म स्वभावे पतले होते ही यह जीव बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय चोरीन्द्रियमे संख्यात काल जन्म मरण कीये बाद मे पांचेन्द्रियमे आया तीर्यचसे नरकमें गया अनंत शितोष्ण क्षुधा पिपास ज्वरादि तथा क्षेत्र वेदना परमाधामी कि करी वेदना को सहन करी तीर्यचमे जलचर स्थलचर खेचरादिकि अलग अलग योनिमें प्रत्येक सौ सागरोपम रहा मनुष्य मे समुत्सम गर्भेज अनार्य जेसे धीवर भील खटीक कसाह मच्छीमार तैली तंबोली रंगरेज वणीक वैश्यादि अनेक भव कर
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( ४६ )
नरक तीर्यच मे गया कदाच अकाम निर्जरासे देव हुआ तो परमाधामी अभोगीया आसूरीकाय किल्बिषिया आदि योनिमे अ मन कीया था कदाच कीसी भवमे घुर्णाक्षर न्यायसे व्यवहारादि समकित प्राप्त हुइ उसे भी अनेक कारणोसे दोषित कर भव भ्रमन कीया था यद्यपि इस समय आप लोगोकों मनुष्य भव आर्य क्षेत्र उत्तम जाति कुल शरीर निरोग्य पूर्ण इन्द्रिय दीर्घायुष्य पवित्रधर्म कि प्राप्ती सद्गुरु समागम सिद्धान्तका श्रवण मीला है अब इसपर श्रद्धा प्रतित लाके पुरुषार्थ करना आपके अक्तीया रहै अगर यह अलभ्य लाभ मीलने पर भी कोई विषय कषाय मे खोदेंगा तो फोर वारवार यह सुअवसर मोलना कठिन है वास्ते हे भव्य श्रोताओ आप मोक्षके कारण दांन शील तप भाव भावना क्षमा दया संतोष परगुणग्रहन ज्ञानध्यान आसनसमाधि प्रभु पूजा गुरुसेवा वात्सल्य प्रभावना ज्ञानमें नय निक्षेप द्रव्यगुण पर्याय द्रव्यभाव द्रव्य क्षेत्र कालभाव उत्सर्गापवाद सामान्य विशेष कारण कार्य निश्चय व्यवहार प्रमाण अधि आधार गौणमुख्य हिय गय उपधय ध्य ध्यान ध्यानि ज्ञय ज्ञान ज्ञानी इत्यादि स्याद्वाद सप्त भंगी अष्टपक्षको सम्यक् प्रकार से ओलखो यह ही मोक्षका मार्ग है इत्यादि देशना के अन्तमे सूरीश्वरजी महाराज ने फरमाया कि मुनि धर्म और श्रावकधर्म यह दो मार्ग खास मोक्षका है जैसी शक्ति हो उसे धारण करे परन्तु लोये हुवे व्रत पूर्णतय आराधन करे तांक जघन्य एक उत्कृष्ट पन्दरा भवसे अवश्य साश्वते सुख मीलेंगे ।
इस अमृतमय देशनाका पान कर श्रोतागण आनंदमय बन गये इतनेमे धनदस सेठ खड़ा हो बोला कि हे भगवान् आपका फरमाना अक्षरांश सत्य है इस संसारका यह हो धर्म है हे भषतारक दीनबन्धु ! में एक अर्ज करताहु कि मेरी इस भवमे तीन
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(५०)
अवस्था हुइ है तो आप ज्ञानवन्त है फरमाइये कि मे कोनसा भधमे कैसे पाप कीया तांके मुझे सकुटुम्ब १२ वर्ष दुःख सहन करना पड़ा इस प्रश्रको श्रवण करनेकि उत्कण्ठा सब परिषदाको हो रही थी सूरीश्वरजी महाराज अपना दिव्य ज्ञानद्वारा कहते हुवे कि हे श्रेष्ठिन् ! एकाग्र चित्तकर श्रवण करो कि जीव कर्मबान्ध ते समय यह विचार नहीं करता है कि भविष्यमे यह कर्म हमे भोगवना पडेगा. सहज ही मे कर्मबन्ध करलेते है वह बडीभारी मुशिबतोंसे भोगवीये जाते है। आप अपना भव ध्यान लगाके सुनिये। इसी जम्बुद्विपके भरतक्षेत्रमें चन्दपुर नामका नगरथा वहांपर एक जिनदास नामका वडा ही धनाढ्य सेठ था जिस्के सुन्दर भार्याथी च्यार पुत्र और च्यार पुत्रोंके ओरते आनंदमे काल निर्गमन करते थे सेठजी श्याम सुवह सामायिक प्रतिक्रमण प्रभु पूजादि धर्मकार्य भी कीया करते थे परन्तु धनपर सेठजीका चित्त अधिक लोभी था उसीनगरमे एक ऋषभदास नामका पुरांणा सेठ रहता था. उनके घरमें नंदा नामकी भार्या सुशील दीनोद्धार लक्ष्मी अवतार गृहश्रृंगार ओर गृहकार्यमें वडी कुशल पति आज्ञापालक धर्मकार्यकारक इत्यादि महिला गुण संयुक्तथी सेठजीके मोकर चाकर भी बहुत थे फाजुल खरचा भी कम नहींथा वह ठकुराइदार पुरांणा सेठ था-हे श्रोता! आप जानते हो कि लक्ष्मी चंचल है सेठजी का हाथफाजुल खरचोंसे तंग होने लगा तब सेठाणीने कहा कि सेठजी आपका हाथ तंग हो तो आप फाजुल खरचे को कम कर दोजिये परन्तु रूढी के गुलाम सेठजीने अपनि जगाहा जमीन गहना दागीने को घेचा किन्तु खरचा कम नही कीया सेठजी को सरम आती थी कि वडेरोंसे चला आया खरचे को कम कैसे करे एवं सेठजी का हात विलकुल तंग हो गया सेठाणीने बहुत समजाया परन्तु सेठने एक भी नही मानी आखिर यहां तक बन गया कि लोटा धोती लेके दिसावर जाने कि तयारी हुइ सेठजी के पास पांच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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(५१) रत्न रहा था वह सेठाणीको देने लगे तो सेठाणीने कहा कि मेरेते इन रत्नोका रक्षण न होगा आपकों विश्वास हो वहां रख विनिये नब ऋषभदासने अपने धर्मी भाइ जिनदास के वहां पांच रत्न रख दीया और आप दीसाधर गया तीन वर्ष तक सनगार कीया निस्मे करीबन पांच लक्ष रूपैये कमाया. बाद अपने देशमें आने लगा तो अपने नगरके पास आते ही रहस्तेमे चौर मीला वह सबका सब माल लुट लिया सेठजी धोती लोटा गमाके घरपर आये सब हाल सेठाणी को कहा सेठाणीने कहा कि कुच्छ फीकर नही आप कुशल पधार गये इस बात कि हमे बहुत खुशी है हमारे पास यह जवेरायत है इसे घेच के काम चलाइये अब भी माप खरचे को कम कर दीजिये । सेठजीने कहा कि दागीमा कीस वास्ते वेचे अबी तो मेरे पास पंचरत्न है आप रत्न लेने को जिनदास के यहां गये भाइजीने कुशलता के समाचार पुच्छे रुषभदासने सब हाल सुनाये. सेठजीने सोचा कि अगर इस बरूत जो पांचो रत्न में नही भी दूंगा तो मुजे कोइ चौर न कहेगा पस दर्विचार से जिनदासने कहा कि कहो भाइ कुच्छ काम होतो रीषभदासने कहा कि मेरा पांच रत्न आपके वहां रखा था वह दे दीजिये सेठजीने कहा कि क्या रहस्तामे चोरने तेरे को लुटा बह देर चारज मेरे पर रखता है भाइ अगर तेरे पांच रत्न होता तो तुं दीसावर कबी जा सकता था? भाइ! कमाके खाने कि आस रखो एसे आपको रत्न नही मीलेगा। परन्तु रीषभदास ठीकाणधारी था वहांसे चुप चाप उठके चिंतातुर ही अपने घरपे चला गया. सेठाणीसे सब हाल कहा तो सेठाणीने कहा कि सेठ साब आप कहांपर भी बात न करना. प तो ठीक हुवा कि अपने इस भवमें ता जैसे तैसे काम चला लेंगे परन्तु पर भवमे मी तो कुछ चाहिये गा यह ले जाइये मेरी रकम इतेव के अपना कार्य चलाइये मोरतने सेठजी को धर्यता दे के चित्त को
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( ५२ )
संतोष कीया यह बात थी रात्री मे ६ बजे कि जिनदास वडा खुशी हो अपने च्यारे पुत्रों को कहा कि हे पुत्रो तुम दिनभर सिरपची कर क्या कमाई करते हो मेने एक घंटाभरमे क्रोड रूपैये के पांच रत्न कमा लिया है यह सुन सेठाणी तथा चारो पुत्र खुश हुवे बजारसे घृत सकर लाके खुशीका हलवा बनाया. भांग गोटी अत्र तेल फूल्लेल लाये अब सब भोजन करनेको बेठे उसमें छोटे लडके कि बहुने कहाकि अहो अधर्म ! दुसरेके दीलमें दाहा लगाके आप हलवेका भोजन करना यह कैसी निर्दय निष्ठुरता इसवातको तीनो पुत्रोकि बहुने कहाकि हा विनणी! तुम कहते हो वह सत्य है परन्तु क्या करे इस घरमे रहना है वास्ते भोजन करनाही पडता है शेष सेठ सेठाणी और च्यार पुत्रो खुशी के साथ माल मुशालेको उडाये. रात्रीभर च्यार बहुओको उस भोजन कर नेका पश्चाताप रहा और छे जीवोको खुशी रही अब शुभे सेठजी उठके सामायिक प्रतिक्रमण कर आत्मनिंदा करते थे इतनेमें छोटे लडकेकि बहुने सुनके तीनों सेठाणीयों से कहने लगी कि आप भी इधर पधारके सेठजीकी आत्मनिंदा सुनीये तो सही बुगलेवालाध्यान यह शब्द सेठजीने सुनके अपने हृदयसे विचार कियाकि अहो! लोभ मेरेसे कैसा दुष्कृत्य कराया है जोकि रीषभदास मेरे विश्वासपर यहां रत्न रख गयाथा मेने उसके गले पर छुरी चलादि धिक्कार पडो मुजको मेरेको कीतना जीना है क्या यह लडका मेरे साथ रत्न दे देगा ? अहो मेने वडा भारी अकृत्य कीया है उसी बखत अपने लडकेको बुलांके कहा कि तुम जाबो रोषभदासको बुला लाओ वह लडका शेषभदासके पास गया रोषभदासने कहा कि भाइ मेरे पास तो जो मेरा जीवन था वह सेठजीने मार लिया है अब और क्या कहेगा सेठाणीने कहाकि सेठ साहिब कीसी के साथ अनुचित्त शब्द नही बोलना चाहिये अगर सेठजी बुलाते है तो आप जाइये बस रोषभदास सेठजीके पास गया उसे देखते
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(५३)
ही बिनदास बोला कि रीषभदास मेरी गलती हुइ है मे तुम्हारा गुनहगार हुँ मेरी नीतमे फरक पडाथा यह आपका पांच रत्न है आप ले लिजिये ओर भी तुमारे जीतना द्रव्य चाहिये वह मेरेसे के जावे आप मेरे साधर्मी भाइ है इत्यादि सत्कार कर पांच रत्न वापीस दे दीये वहांसे अपने अपने कर्मानुसार भवभ्रमण करते हुवे हे धनदत्त आपतो हो जिनदासका जीव और पूर्वभवके सब कुटुम्ब इसबख्त आपको कर्म भोगवनेके लिये मीला है बारहा - टोका बारह वर्ष दुःखके हुवे है जिस्मे तो आपकि भावना पीछेसे भी ठीक आगइथी जीसे आपको फीर भी यह ऋद्धि मीली है जैसे जैसे तुमारे कुटुम्बके परिणाम रहे थे वैसे वैसे दुःख भोगवना ही पडाथा। सेठजीका पूर्वभव श्रषण कर परिषदा थर थर कम्पने लग गह कि अहो कर्म! एक बारहा घंटे रत्न रखाथा जिस्का यह फल हुवा है इसपर सब लोकोने विचारपूर्वक निर्णय कर लिया कि किसीका गुप्त एक पैसा भी नही लेना चाहिये किसीका दीलको नही दुःखाना चाहिये इत्यादि सेठजीने कहा कि हे भगवान् वह ऋषभदास और उनोकी सेठाणी कहा होगी में जा के उनसे मेरा अपराध क्षमावु । भगवान्ने फरमाया कि इस बख्त वह दोनो महा विदह क्षेत्रमे केवली है तुमको मोक्षमे मीलेगा। सेठजीने कहा कि क्यो भगवान् ! मेरे जैसे पापीयोका भी मोक्ष होगा! सूरीनीने फरमाया कि हां सेठ तुम भव्य है यह सुनते ही सेठजी सूरीजीको बन्दना नमस्कार कर अपने घरपर जाके अपने पुत्रोको यथायोग्य गृह भार सोप आप सेठ सेठाणी नूरीजीके पास दीक्षा हा व्यारो पुत्र भोर पुत्रोंकि ओरतो प्रावकधर्म प्रहन कीया बाद सरीजी विहार कीया महिपालादि अर्थ काम धर्म वर्ग को साधन करते हुवे सात क्षेत्र में द्रव्य खरचके अनेक सुकृत कार्य करते हुषे पास्यावासको सफल कर रहे थे। रत्नसुन्दरीके एक पुत्र हुषा जिसका नाम रत्नपाल रखाथा. एकदा नांनाणे गया था वहां राना
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(५४) वैराग्यपूर्वक रत्नपालको राज दे दीक्षा ली वह विहार करता एकदा चम्पानगरी आये-महिपालादि उपदेश श्रवण कर अपने पुत्रोको गृह भार सुपरत कर च्यारो भाइ पांचो ओरतो कामसेन मुनि पासे दीक्षा ग्रहन करी शुद्ध चारित्र पाल के सब जीव आठवे देवलोक गये वहांसे क्रमसर मोक्ष जावेगा. परन्तु सुरसुन्दरी एकावतारी थी अस्तु। कर्मबन्ध विषयपर और संसारके चित्र दीखानेमे यह प्रबन्ध बडा ही उच्च कोटीका है श्रोतावर्ग श्रवण कर कर्मबन्ध हेतुसे डरे और धर्मकार्य साधनेमे विशेष प्रयत्न करे इति समाप्तम्"
अनुबादक-श्री पार्श्वनाथ प्रभु के पाट शुभदत्त गणधर हुषे उनोके पाट श्री हरिदत्तसूरी हुवे उनके पाट श्री आर्य समुद्रसूरी हुवे इनोके शासनमे बुद्ध कीर्ती साधुसे बौधधर्म प्रचलीत हुवा । उन आर्यसमुद्र सूरीके पाट श्री कैसी श्रमण कुमार हुवे उनोने प्रदेशी आदि १२ राजाओंको प्रतिबोध कर जैनी बनाया था उनके पाट श्री स्वयंप्रभ सूरी हुवे जिनोने भिन्नमाल नगरमे ९०००० घर जैन श्रीमाली बनाया ओर पद्मावती नगरीमें ४५००० घर जैन पोरवाल बनाये उनके पाट श्री रत्नप्रभसूरी हुवे जिनोने ओशीयो नगरीमें ३८४००० घर जैन ओसवाल बनाये उनोंके पाट श्री यक्ष देवसूरी हुवे जिनोने राजग्रहनगरमे मणिभद्र यक्षका उपद्रव को मीटा १२५००० जैन बनाया उनोके पाट श्री ककसूरीजी हुवे जिनोने कनोज देशमें जाके लक्ष जीव यज्ञमे बलीदान करते को छोडा के लाक्ष गम जैन बनाया उनोके पाट श्री देवगुप्तसूरी हुवे जिनोकी सेवा राजा महाराजा तो क्या परन्तु अनेक देवी देवता करतेथे जिस्के जरिये बहुतसे बौधोको जैन बनाया उनके पाट श्री सिद्धसूरीजी महाराज हुवे जिनोका विद्याबल इतना तो चमत्कारी था कि जैन शासनका बडा भारी उद्योत कियाथा पीछले पांचे आचार्यों के क्रमशः
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(५५)
नामसे आज उन्ही आचार्योंकी अविच्छन्न परम्परा चली आति है इस पार्श्वनाथ प्रभुकी परम्परामें छटे पाट श्री रत्नप्रभसूरीसे उपकेश गच्छ एसा नाम हुवा है बाद मे उदयपुर रांणाने इस गच्छ के आचार्यों को 'कमला' खीताब दीया है इस कमला विरूद और उपकेश गच्छ के किंकर मुनि ज्ञानसुन्दरने भव्य जीवोंके प्रतिबोधहितार्थ के लिये इस कथाका सरल ओर सादी भाषामें अनुबाद कीया है जिसे हमारे मारवाडी भाह भी इसे लाभ उठा सके इत्यलम् मतिदोष दृष्टिदोष के तथा मेरी मातृभाषा मारवाडी होने के कारण अशुद्धि या न्यूनाधिक विवेचन करनेमे आया हो तो मे अन्तकरणसे मिच्छामि दुष्कृत देता हुं ओर सजन पुरुष कोइ तुटीकी मुझे सूचना देंगा तो मे उपकारके साथ स्वीकारकर वितोयावृत्तिमें सुधार दुगा शान्ति ३।
हितबोध ।
॥१॥
॥२॥
सरस्वतिके भण्डार कि, बडी अपूर्व वात। न्यु खरचे त्युं त्यु बडे, विन खरच्यां गट जात समजदार सुजाण, नर अवसर चुके नहीं । अवसरको आसाण, रहे घणा दिन राजिया कहो नफो कोण काढीयो, लुचों पले लगाय । हिंग तणे संग हालीयो, मृग मद मजो गमाय ज्यारो मन्त्र जल माय, सल त्यासुमोटी करे । वे जरा मूलसे जाय, राम न राखे राजिया शठ समामे बेठतों, पत्त पण्डितकि जाय । पकण वाडे किम बरे, रोझ गधेडो गाय
॥३॥
॥४॥
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(५६)
हस्ती चाले एक, लख कुकर गलीयो लवे । वडपण तणो विवेक, रीश न आणे राजिया ॥६॥ 'सामन' पराया बागमें, दाख तोड खर खाय । हानि लाभ तो कुच्छनहीं, पण असही सही न जाय ॥७॥ जेसी संगत बेठीये, तेसी इजत थाय । सिरपर मखमल सेहरो, पनही मखमल पाय ॥८॥ दुष्ट संग वसीये नहीं, तासे दुर्गुन पाय । घसित वांसकि आगीसे, जरत सबी वनराय मधुर बचन से मीटत है, उत्तम जन अभिमान । तनक शीत जलसे मीटे, जैसे दुद्ध उफान ॥१०॥ दुष्ट न छोडे दुष्टता, बहुली शिक्षा देत । धोये ही सौ वार से, काजल होत न प्रवेत ॥११॥ बात कहन कि रीतमें, हे अन्तर अधिकाय । एक वचन रोसे चढे, एक वचन से जाय ॥१२॥ अति सरल बनिये नहीं, देखो ज्यु वनराय । सीधा सीधा काटतां, वंका तरू वचजाय ॥१३॥ हरत देवता निबल अरू, दुर्बल ही के प्रान । व्याघ्र सिंहको छोडके, लेत छागा बलीदान ॥१४॥ जो पहला किजे यतन, सो पीच्छे फलदाय । आग लगी खोदे कुँवा, कैसे आग बुझाय ॥१५॥ एकज ठोर सुजान खल, तजे न अपनो अंग । मणि विषहर विषधर सर्प, सदा रहत एक संग ॥१६॥ पर कर मेरू समान, आप रहे रज कण जीसा ।। धन्यपुरुष जगमोह, ज्यारो रामरूखालो राजिया ॥१७॥ कूडा कूड प्रकाश, अणदीठि हाके इसी । उडति फीरे आकाश, रंजन लागे राजिया. ॥१८॥
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( ५७ )
पलपल में करे प्यार, पलपल में पलटे परा । उण नोलतियों कि लार, रंज उडावो राजिया पुन्य गया परवार, सज्जन संग छुटी जदे । दुर्जन जन कि लार, रोता फीरवे राजिया बडे बडे को देख के, छोटे न दीजे डार 1 काम पडे सूचीतणो, तो कह करत तलवार काउको हँसीये नहीं, हाँसी कलह को मूल हसी हास दोनो भये, कौरव पांडव निर्मूल विद्या धन सुख साहिबी, सद्गुणको समुदाय नेकी से सब आत है, बदी से सब जाय राम कहे सुग्रीवने, लंका केती आलसीयों अलगी गणी, उद्यम हाथ हजुर करत कुसंग चाहात कुशल, यह बडो अफसोस । महमा गटी समुद्रकी, रावण वस्यो पाडोस
।
।
दूर ।
।।१९ ॥
॥२०॥
॥२१॥
||२२||
112311
112811
112911
॥३॥
संपदि यस्य न हर्षो विपदि विषादो रणेच धीरत्वम् | त भुवनत्रय तिलकं जनयति जननी सुतं विरलम् 11211 पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः स्वयं न स्वादन्ति फलानि वृक्षाः । नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः परोपकाराय सतां विभूतयः ॥ २ ॥ सर्पः कूरः खलः क्रूरः सपत्वििरतरः खलः । मन्त्रेण शाम्यते सर्पों । न खलः शाम्यते कदा मुखं पद्मदलाकारं । वाचा चन्दन शितला ॥ हृदयं क्रोध संयुक्तं । त्रिविधं धूर्त लक्षणम् हे दारिद्र ! नमस्तुभ्यं । सिद्धोऽहं त्वत्प्रसादतः ॥ पश्याम्यहं जगत्सर्वं । न मां पश्यति कश्चन वरं हि नरके वासो न तु दुश्चरिते गृहे । नरकात्क्षीयते पापं कुगृहात्परिवर्धते
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॥५॥
॥६॥
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॥८॥
(५८) प्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन । दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन ।। विभाति कायाः खलु सजनानां । परोपकारेण न चन्दनेन ॥७॥ अकिंचनस्य दन्तस्य । शान्तस्य समचेतसः ॥ सदा संतुष्ट मनसः । सर्वासुखमया दिशः । मनोरथ रथारूढं । युक्तमिन्द्रिय वाजिभिः ॥ भ्राम्यत्येव जगत्कृत्स्नं । तृष्णा सारथि चोदितम् अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं । दशन विहीनं जातं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं । तदपि न मुश्नत्याशा पिण्डम् ॥१०॥ उद्योग साहसं धैर्य । बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः ॥ षडेते यत्र वर्तन्ते । तत्र देवा सहायकृत्
॥११॥ उद्योगिनः करालम्ब । करोति कमलालया ॥. अनुद्योगि करालम्बं । करोति कमला प्रजा
॥१२॥ विदेशेषु धनं विद्या । व्यसनेषु धनं मतिः । परलोके धनं धर्मः । शीलं सर्वत्र वै धनम्
॥१३॥ चन्दनं शीतलं लोके । चन्दनादपि चन्द्रमाः ॥ चन्द्र चन्दनयोर्मध्ये । शितला साधु संगति
॥१४॥ साधूनां दर्शनं पुण्यं । तीर्थभूता हि साधवाः ॥ कालेन फलते तीर्थ । सद्यः साधु समागमः ॥ ॥१५॥ अहो दुर्जन संसर्गा-न्मानहानि: पदे पदे ॥ पावको लोह संगेन । मुद्गरैरभिहन्यते
॥१६॥ परोक्षे कार्य हन्तारं । प्रत्यक्षे प्रिय वादिनम् ॥ वर्जयेत्तादृशं मित्रं । विषकुम्भं पयोमुखम्
॥१७॥ किं जातैबहुभिः पुत्रः । शोक संताप कारकैः ॥ वरमेकः कुलालम्बी । यत्र विश्राम्यते कुलम्
॥१८॥ ताशी नायते बुद्धि र्व्यवसायोऽपि तादृशः ॥ सहायास्तादृशाश्चैव । यादृशी भवितव्यताः
॥१९॥
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________________ DOOK(c)(c)(r)(c)(r)*(c)*****03@@ अपूर्वलाभ. (1) शीघ्रबोध भाग 1-2=3-4-5 यह बहुत अच्छे सुधाराके साथ द्वितीयावृति छपाइ गइ है द्रव्यानुयोगनय-निक्षेप द्रव्य गुण पर्याय स्याद्वाद स्वरूप समझने में, सुगमताके साथ अच्छी कोसीस की गइ है किं. रु. 1 // (2) शीघ्रबोध भाग 10-11-12-13-14-15-16-23-24 25 किं. रु. 2 // (3) शीघ्रबोध भाग 17-18-19-20-21-22 जिस्मे वारह सूत्रोंका हिन्दी भाषान्तर है किं. रु. 4) (4) भाव प्रकरण सावचूरि भेट. (5) द्रव्यानुयोग द्वितीय प्रवेशिका रु.) (6) गुणानुराग कूलक रु.०), (7) महासती सुरसुन्दरी यह एक मनोरंजक हिन्दी भाषामें कथा वडी ही बोधकारी है रु. ) पत्तः-श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला, मुः-फलोदी-मारवाड. श्री सुखसागर ज्ञानप्रचारक सभा, मुः-लोहावट-मारवाड. मावनगर-धी आनंद प्री. प्रेसमा, शाह गुलाबचंद लल्लुमाए छाप्यु. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com