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पलपल में करे प्यार, पलपल में पलटे परा । उण नोलतियों कि लार, रंज उडावो राजिया पुन्य गया परवार, सज्जन संग छुटी जदे । दुर्जन जन कि लार, रोता फीरवे राजिया बडे बडे को देख के, छोटे न दीजे डार 1 काम पडे सूचीतणो, तो कह करत तलवार काउको हँसीये नहीं, हाँसी कलह को मूल हसी हास दोनो भये, कौरव पांडव निर्मूल विद्या धन सुख साहिबी, सद्गुणको समुदाय नेकी से सब आत है, बदी से सब जाय राम कहे सुग्रीवने, लंका केती आलसीयों अलगी गणी, उद्यम हाथ हजुर करत कुसंग चाहात कुशल, यह बडो अफसोस । महमा गटी समुद्रकी, रावण वस्यो पाडोस
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दूर ।
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संपदि यस्य न हर्षो विपदि विषादो रणेच धीरत्वम् | त भुवनत्रय तिलकं जनयति जननी सुतं विरलम् 11211 पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः स्वयं न स्वादन्ति फलानि वृक्षाः । नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः परोपकाराय सतां विभूतयः ॥ २ ॥ सर्पः कूरः खलः क्रूरः सपत्वििरतरः खलः । मन्त्रेण शाम्यते सर्पों । न खलः शाम्यते कदा मुखं पद्मदलाकारं । वाचा चन्दन शितला ॥ हृदयं क्रोध संयुक्तं । त्रिविधं धूर्त लक्षणम् हे दारिद्र ! नमस्तुभ्यं । सिद्धोऽहं त्वत्प्रसादतः ॥ पश्याम्यहं जगत्सर्वं । न मां पश्यति कश्चन वरं हि नरके वासो न तु दुश्चरिते गृहे । नरकात्क्षीयते पापं कुगृहात्परिवर्धते
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