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(१८) नावेंगा तो और भी केइ कोस्मकि आपतियों आ पडेगा जेसे मनुष्यको चढता बुखारमे कीसी प्रकारका इलाज करना दुःखका ही हेतु होता है.
क्षुधापिडिन सेठजी वडे ही विचार सागरमे गोते खाना सरू कीया कि अब करना क्या. यहां रहने मे ता खराबों के सिवाय कुच्छ लाभ नही है तब सब जिणो कि सलाहाले के रात्रीमे करीबन साढा तान बजे वहांसे रवाने हुये कर्म योग वह रात्री भी अन्धारी थी वह सुख नाहीवी भोगवनेवाले अमीर शरीर उम्मर भरमे कबी पैदल चले हुवे नही थे ऐसी भुख भी कवी देखो नही थी रात्री मे चलते समय उन सेठ सेठाणी के सुमाल शरीर कों वडी भारी तकलीफे होती थी उस समय उना नेत्रोसे आंसु.
ओं के मारे गंगा जमुना नदीयो चलनी सरूमी गइ थी वह ध्यारो सुरसुन्दरीयों जिस्के कोमल पावों में कैटे लगते थे तब रक्त कि धार छुट जाति थी जंगल के छोटे छोटे झाड कांटे के समुहसे मानो सेठजो के कुटुम्ब के लिये एक कीस्म के दुशमनो कि फोज ही न बन बेठ हो च्यारो कुँवरजी रात्री मे चलते पत्थरो से ठोकर खा खाके जमीनपर गिर पडते थे सासुजी बहुजी को पुकार करती थी देराणी जेठाणीजी से पुकार करती थी बाप बेटा से पुकार करते थे उस समय का दुःख ईश्वर जानते थे या वह सहन करनेवाले लोग जानते है वह लोग यहां तक त्रास खा जाते थे कि इस समय हमारे पास कोई शखया विष नही है नही तो एक तनकमे हम इस शरीर का त्याग कर देते उस विकट रहस्ते में सुरसुन्दरी सबको कहती थी कि हे पूज्यवरो आप समजदार हो इतना कलेश क्यो करते हो यह तो अपने बन्धे हुवे कर्मोंका दोष है और कीसोका नहीं है देखीये भगवान् रामचन्द्रजी लक्षमणजी माता सीता ऐस बनवासमे ही अपने दुर्जन कर्म से नय पाह थी राजा हरिश्चन्द्र और तारा राणीने साहसीकता से
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