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हमारी परम्परासे चला आता है क्या मेराही कसुर तुमने नीकाला है मेरे भाइका स्वभावको भी तृमने देखा है कविने पुच्छा कि तेरा भाइ कोन है लक्ष्मीने कहा कि मेरा भाइ हे सूर्य उस्का भी स्वभाव प्रत्य समय भ्रमन करनेका ही हैं मे भी उस्की बहन हु तो वह स्वभाव मेरेमे हे इसमे कवियों का कलेज क्यों जलते है और जो महात्मावोंने हमारी तोयन करी भी है तो इनसे होता है क्या ! क्या कोई हमारा महात्व दुनियोंमे कम हो गया असंख्य जीव हमारे पेरोमे आके सिर झुकाते है इतनाही नहीं बल्के वडे बड़े झटाधारी मठधारी वनवासी वस्तीवासी कहजाते हुवे महात्मा भी तो हमारा आदर करते है हमारे विगर दुनियोमे पृन्छते हे कौन ? अरे निर्लज कवियों तुम भी तो हमारे ही उपासक हो तुमारी कविताओंका प्रयत्न भी तो हमारे लिये ही हुवा करते है देखीये
विद्यादृद्धास्तवोवृद्धाः ये च वृद्धा बहुश्रुताः सर्वे ते धनवृद्धस्य, द्वारि तिष्टति किङ्कराः ॥१॥
यह श्लोक श्रवण करते ही कवि के सिरकि गरमी शान्त हो गइ । सेठजी सकुंटुम्ब भुखे मरते हुवे नगरी के बाहार चिंतातुर हो सोचने लगे कि अब क्या करणा चाहिये जब अपने ज्येष्ट पुत्रको बुलाके बोला कि तुमारा लग्न समय तुमारे सुसराजीने नौकोड सोनइयोका द्रव्य दीया था, वह अच्छे प्रेम प्रीतीबाले है और धानाढ्य भी है तुम अपने सासरे जावो और अपना हाल सुनाके कहो कि इस बख्त हमारे सिम्पर आपतियो श्रा पडी हैं वुच्छ हमको सहायता
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