Book Title: Mahasati Sur Sundari
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpamala

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Page 28
________________ (२५) धार बुढोको देख एक साहुकारको दया आनेसे उसको अपने वहां रख लिया सेठाणीको तो अपने चोकामें रखली और सेठनीको पोलके दरवाजे पर हाथमे माला देके बेठा दीया। पीछे रही हुए च्यारो ओरतें सेठ-सेठाणीकी राह देख रहीथी. परन्तु उनका समाचार तक भी न आया इस हालतमें उनोको वडा भारी दुःख हुवा और विचार करने लगी कि औरतो सब बातें तथा सुखदुःख सहन कर सकेंगे परन्तु इस तारूण्य अवस्थामे ब्रह्मचर्य व्रतका रक्षण कीस रीतीसे करेंगे इस बातका बडा भारी दुःख हो गया है इस पर तीनो सेठाणीयोंने सोच समज के कहा कि हे देराणि! हम लोग तो कुच्छ समजते नही है न हमको बचपनसे एसी तालिम मीलीथी अब हमारे तो आपहीका आधार है हमारा निर्वाह करना तुमारे हाथ है छोटा बडेका काम नही है यहांपर अकल हुसीयारीका ही काम है जो हमारा पति और सासु सुसरा हमको छोड गये है परन्तु आप एसी न करे हमारा तो धर्म ब्रह्मचर्य और जीवन ही आपके आधिन है इत्यादि कहने पर सुरसुन्दरी बोली कि आप मेरे सासु तुल्य है अगर मेरेपर ही आप सब बजन डालना चाहाते हो तो मेरेसे बनेगा वह आपकि सेवा कर. नेको तैयार हु एक अपने अन्दर ही नही किन्तु पहले भी असंख्य सतीयोमे संकट पडा है और उन विकट अवस्थामें भी उन सती. योने अपना ब्रह्मचर्य रत्नको बराबर पालन किया है ब्रह्मचर्य के लिये महासतीयोंने अपना प्यारे प्राणोका भी बलीदान कर दीया था नेत्र और जबान काहरके मृत्युका सरण ले लीया था. है बुद्धिमति आप यह निश्चय कर लिजिये कि एकके कहने माफीक सबको चलना ठीक है कारण कषियोने कहा है कि "अपत्त बहुपत्त निवलपत्त पत्त बालक पत्त जाहार नरपुरीका तो क्या कहना पण सुरपुरी होत उनार' इस पर तीनों बहनोने हायमें हाथ दे वचन दे दीया कि हम तीनो आपके कहनेमे चलेंगे बस ! सुरसु. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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