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विलास वन्दन और नैत्रोसे कटाक्षरूपी बाणको चलाती हुइ कुंवर साबके पास आइ रत्नसुन्दरी चोसट कला प्रवीण पतिका विनय भक्ति और मर्यादा कि जानकार होने से दोनो करकमल जोड अर्ज करी कि हे प्राणेश्वर । आपकि आज्ञा हो तो में आपके पलंगपर आवुं कुंवरजीने कहा कि इसी वास्ते तो मेने मेरे देश मर्यादाका त्याग कर दरबारकि आज्ञाका पालन कीया है परन्तु इस बख्त एक वार्ता मुझे स्मरण होती है ? पत्नी बोली की वह कोनसी ? कुंवरजी ने कहा कि पांच वर्षों पेश्तर मेरे काकासाहिबका लग्न हुवा था उनोंने गफलत से हमारी कुलदेवी कि मानता कियो विगर दम्पति एक शय्या के अन्दर सो गये थे उस पर देवीने कोप कीया तो इतना कि हमारे काका साहिबका नाभीके निचेका शरीर नष्ट हो गया था जिसे हमारे काकीजी साबको पति के साथ संसारीक सुखोंसे हाथ धो बेठना पडा था इस विचार से मुझे संकुचित होना पडा है परन्तु अब आपका सुन्दर स्वरूप देख मेरे से क्षणमात्र भी रहा नही जाता है वास्ते शीघ्र पाधारिये एसा कहके अपनि प्यारी पत्नीका चीर खेंच अपनि तर्फ आकर्षित करी. यह सुनते ही विचक्षण प्रज्ञावान्त रत्नसुन्दरीने सोचा कि जब एसी कूल देवी है और आपके काकाजीका यह हाल हुवा है तो मुझे संतोष ही रखना अच्छा है अगर स्वल्प कालके लिये पसा कीया भी जावे तो दीर्घकाल दुःख सहन करना पडेगा इस विचार से आप अपना चीर छोडाके बोली कि हे स्वामिन् आप तो खुद ही समजदार है में तुच्छ बुद्धिवाली दासी आपसे क्या अर्ज करू परन्तु आपको इस समय संतोष रखना उचित है आपके कूलदेवीका पूजन विगरह करके ही एक शय्यन पर एकत्र होना ठीक है यह सुन कुंवरजीने तो वारंवार हाथ खेचना सरू कीया कि देवी करेगा वह फोर देख लेंगे परन्तु आपके बिगर मेरेसे एक क्षण मात्र भी रहा नही जाता है आवे हमारी गोदमे
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