Book Title: Mahasati Sur Sundari
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpamala

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Page 49
________________ ( ४६ ) सेठजी की मुलाकात करने को आये अपना अपना कसुर कि माफी मागी सेठजीने कहा कि आपका कुच्छ भी कसुर नही है कसुर है मेरे कर्मोंका, में आपसे भी यह ही अर्ज करता हु की कोइ कर्म न बन्धे न जाने वह कर्म कीस बखत उदय आवेगा इत्यादि नगर मे यह वात खुब प्रसिद्ध हो गइ कि सेठजी के संकटमे सुरसुन्दरी महासती बडी ही साहासीक पने के साथ अपने कर्म भोगव के यह ऋद्धि लेके निज कुटम्ब का मान बढाती हुई अपने घर मे कुशलता से आइ है । यह तो हुइ दिन कि बात अब रात्री मे तीनो भाइयो के औरतो तो अपने अपने महलो मे चली गई सुरसुन्दरी अपने पति सुरपति के मह लमे जा रही थी इतनेमें रत्नसुन्दरीने कहा कि आपतो सब आपने आपने खरे पतियोको ले महलमे पधारते हो परन्तु मेरा क्या हाल है क्या मुझे पाणीग्रहण करनेवाला सच ही वह कुँवरजी औरत सुरसुन्दरी ही है जबतक मेरे पतिका निश्चय न होगा. वहां तक में कीसीकों भी अपने पति के पास जाने न दुंगी यह सुन मनुष्यों को तो क्या परन्तु पासमे रही हुइ कूलदेवीको भी इसी आ गइ थी वह बाली कि वह सुरसुन्दरी तुमने तो सबसे अधिकार करी है एक देवांगना के माफीक राजसुताको भी ले आइ परन्तु अब मैं इनका इन्साफ कर देती हूं कि हे रत्नसुन्दरी तेरेको जो सुरसुन्दरी परणके लाइ है तो वह तो खुद ही ओरत है परन्तु कानुन यह कहता है कि सुरसुन्दरीका पति है वह ही तेरा पति है यह कहके रत्नसुन्दरीने सुरपतिके महलमे भेज दी कूलदेवी सेठ सेठाणी और सुरसुन्दरी आदि सब कुटम्बवाले से शिस्टाचार कर कूल रक्षण के लिये सदैव जगृत हुइ । सेठजीके वर हाटकि चावीयो आगइ दुसरे ही दिन वह दिसावर की दुकानो के गुमास्ता जो माल ले गये थे वह वापिस आके बोलाकि सेठजी हमारी नीत बदल जानेसे हम आपके माल ले गयथे परन्तु उस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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