Book Title: Mahasati Sur Sundari
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpamala

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Page 37
________________ (३४) जानकार होने पर एसा अयोग्य वरताव कीस वास्ते करते हो इत्यादि प्रधानजी सुरसुन्दरके पास आये दरबारका सब हुकम सुना दिया सुरसुन्दरने सोचा कि मुझे तो कोइ हरज है नही जैसे दरबारकि मरजी वस सगपण कर दीया योशीयोंको पंडितो को बुलवाके जल्दी महुर्त लग्नका देखाके दोनो तर्फ रंग राग महो. त्सव होने लगे बजारके वैपारी तथा राजाके मुत्सदी लोग सुरसुन्दरकि तर्फसे जांनीये तैयार होने लग गये हजारो नही लाखो रूपैयोका खरच हो रहा था याचको को दान सजनो को सन्मान होते हुवे सुरसुन्दर हस्ती पर अरूढ हो तोरण पर आ रहा था यह अनुचित वरताव देख सूर्य अपना वैमान ले के अस्ताचलकि तरफ चला गया कारण उत्तम आदमि अनुचित कार्यमे अपनि साखसी कभी नही डाला करते है तोरण पर सासुजो आरणकारण आदि रीत कर कुंवरजीको चोरीके अन्दर ले गये जब रत्नसुन्दरीके साथ हथलेवा जोडा उस बख्त कुंवरजीने अपना हाथ इतना तो जोरदार बना लीया था कि अच्छा मर्दका हाथको भी तोड सके तो रत्नसुन्दरीकी तो कोतनीक वतथी ब्रह्मणोने अनेक श्रुतियोंका पठन कर जवादि होम कर उन दम्पतिको आशिर्वाद दीया दरबारने बाइजीके हथलेवामें कन्यादान करते हुवे बहुतसा द्रव्य या राजमें भाग दे के हथलेवो छुडायों तत्पश्चात् दम्पतिको सुन्दर महलमें जो पुष्पादिसे तैयार करी शय्यामें भेज दीये. सुरसुन्दरकि कसोटीका समय आ पहुंचा है देखीये अब कीस रीतीसे पारक्षा होती है सुरसुन्दरने सोचा कि “ अकल अमोलक गुण रत्न अकलो पुच्छे राज । एक अकलकि नकलसे सब हीसुधरे काज" छपर पलंगपर सुरसुन्दरजी विराजमान हो गये है इधर रत्नसुन्दरी पतिकी अभिलाष कर नाना प्रकारके वस्त्रभूषण काजल टीकी आदिसे शोलहा श्रृंगार कर सुरसुन्दरीके माफीक अपनि काम चेष्टा दीखाती हुइ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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