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(११) केगा ? तो आज यह कंटक शब्द मेरे कानोमे क्यो पडे है क्या सचही में इस सुखोको छोड दुःखोका अनुभव करूगा अगर यह मेरी साहिबी छुट जावेगा. अरेरेरे करतेही सेठजीको एकदम मुळ श्रा गइ। कुच्छ देरीसे सेठजी सावचेत हुवे नेत्रोसे प्रांशुवोकि नदीयों चलने लग गई है ओर रुदन करते हुवे सेठजी सोचने लगे कि अहो कर्म विरम्बना. अगर दुःख आवेंगा तो मेरे यह मोतीमहल छुट जावेंगा शालदुशाला सिगसावुनि ओर सबमान आदारसत्कार छुट जावेंगा। नही नही में इस्को कैसे छोडुगा इत्यादि विचारसागरमे गोता खाते को वह दुःखरात्री सेठजीको सो वर्ष तूल्य होगइ वार वार उठके आकाश देख रहे थे अब कीतनी गत्री है एसे विलापातसे सेठजीने रात्री निर्गमन करी शुभ उठके सेठजी सेठाणीके महलकि तर्फ जाके दरवाजेके कपाट खखडाये सेठाणीजी सुखभर निंद्रासे जागेभी क्यो ओर सेठजी पानेका कारणही क्यो जाने. दो तीनवार पुकार करनेसे सेठाणीजीने सोचाकि शब्द अवाजतो सेठजीकी पाइ जाति है परन्तु इस बख्त सेठजी यहां क्यों आये होगें । कपाट खोलके देखा तो निस्तेज सेठजी खडे है सेठाणीजीने पुच्छाकि हे नाथ आज क्या है कि आपका दीनवदन भयंकार दीखता है सेठजीने कहा कि आप सुखसे पीलंगपर पडे हो आपको मालुम क्यो है कि रात्रीमे मेरी क्या दशा हुइ ? सेठाणीजीने कहाकि में आपकि सेवासे प्राइ वहांतक तो प्रापको कुच्छभी दुःख नही था तो क्या मेरे भानेके बाद आपके शरीग्मे कुच्छ तकलीफ हुइथी ? सेठजीने कहाकि नहि-तो फीर क्या कारण है कि भाप इतने फीक्रमें है। सेठजीने कहाकि गत्रीमे अपनी कुलदेवी
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