Book Title: Mahasati Sur Sundari
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpamala

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Page 15
________________ (१२) आइथी यावत् सब हाल सुनाया. सेठाणीजी सुनतेहै मुर्छा खाके गीर पडी हाथोकि चुडीयो तुट गइ सिरके बाल कोपीत होगये शरीरपरके वस्त्र दुश्मन होगये जो दशा सेठजीकी हुइथी वहही सेठाणीजी की हुइ सोचीये सज्जनों दुःख सब जीवोंको प्रतिकूल है आखिर सेठ सेठाणीने सोचाकि अब क्या करना चाहिये सेठाणीने कहाकि सेठजी अपनि तो उम्मर पक गइ है जो शरीरमे नशा ताक्तथी वह धनमद कुटम्बमद और सुखकिथी अब दुःख सहन करनेयोग अपनि अवस्था नही है यह सब कार्य अपने पुत्रोका है इस्मे सलाहाभी पुत्रोकीही लेना चाहिये इस निश्चय पर च्यारो पुत्रो और च्यार पुत्रबधुप्रोकों बीलाये. दशोजने एक कम्मरेमे एकत्र हो सलाहा करने लगाकि कर्म अपनेको भोगवनाही हैं इस्मेमें तो कोइ मत्तभेद हैही नही किन्तु कर्म भोगवना इस बख्त या पीछेसे. इस्मे अपनि अपनि रहा देना चाहिये पुत्रोने सोचाकि इस बख्ततों अपनी सादी हुइ है युवक वय है धन धान्यादिकी सामग्रीभी पासमे है याने सुख भोगवनेकी बख्त है वास्ते मीले हुवे सख तों भोंगवले फीर वृद्धावस्था तो स्वयंही दुःखदाइ हैं उस दुःखके साथ यहभी दुःख सहन करेगें जो कुच्छ होगा सो आगे के लीये है मीला सुख क्यों गमाना चाहिये यह विचार कर सबने अपनि अपनि निश्चत वातोको प्रगट करी जिस्मे सेठसेठाणी च्यारो पुत्र और सुरसुन्दरी छोडके तीन बेटोंकी औरतों अर्थात् नौजीनोका तो एकमत हो गयाकि इस समये सुख भोंगवले पीछेसे दुःख भोगवाना ठीक है किन्तुसुरसुन्दरीने अपना मत्त प्रगट नहीं कीया जीसपर सेठजीने कहाकि ह गुणवन्ती ! तुं तेरा मत्त कहे । सुरसुन्दरीने कहाकि हे सुसराजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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