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महाजनवंश मुक्तावली
धर्म, अंगीकार किया, सच्चाय देवीकी सहायतासे, धर्म पाया इस लिये सम्यक्त्व धारणी साधर्मणीकों, उपकारणी जाणके लपसी, नारेल, खाजा, चूरमा, पक्कान्नसें, बली देणा शुरू रक्खा, जगत्तारक वीर प्रभुका मन्दिर कराणा शुरू कराया, सच्चायदेवीने, प्रकट होकर महाजन विरुद दिया, इस बातकों -सुणके भीनमालका राजा, आसलने भी, जैनधर्म, अंगीकार करा, और, भी
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मैं महावीर प्रभुका मन्दिर, कराणा शुरू करा, दोनों मंदिरोंकी प्रतिठाका मुहूर्त एक दिन होणेसें, रत्नप्रभ सूरिनें, दो रूप रचकर, ओसियां और भीन मालके मन्दिर मूर्तिकी, प्रतिष्ठा एक कालमें, करी, जैन धर्मका आचार विचार सीखके, सब राजपूत, १० वर्षमैं हुशियार हुए, जब दोनों मन्दिर भी चार मंडपका शिखर बद्ध १० वर्षमैं तैय्यार हुआ, प्रतिष्ठाके "पीछे साधर्मी वात्सल्य राजानें किया, तब ब्राह्मन जो राजाके कुल भिक्षुक थे, उन्होंने भोजनकी बखत सिर फोडी करणी शुरू की, तब राजाने कहा, अगर जैनधर्मकी, श्रद्धा धारण करो, जिन मन्दिरकी सेवा और जतीगुरूकी - टहल बन्दगी, धारण करो तो, तुम्हारा मरणे, परणे, लागभाग हम लोक देंगें, अन्यथा नहीं देंगें, तब पूर्वोक्त जातिके ब्राह्मनोंमेंसें, पांच सहस्र `पुरुषोंने कहा, ये बात हमैं मंजूर है, परन्तु जिनमन्दिर मैं जो बली चढाये जाती हैं, वो हमैं देणा होगा, क्यों के आगे, ये मर्यादा थी जो जिनमन्दि-मैं बली (नैवेद्यफल ) चढाए जाते थे, वो सब मन्दिर ऊपर, कूट पर, “धरा जाता था, उसको कऊए आदि जीव भक्षनकर जाते थे, इस वास्ते, कोषमैं कऊएका नाम, संस्कृतमैं बलिभुक् कहते हैं, तब राजानें, अपने पमारों के कुलभिक्षुककौं, महावीर प्रभुके मन्दिरमें झाडू देणे, बरतण मलणे, दीपक जलाणे, जललाणे इत्यादि मन्दिरका काम सुपुर्द कर दिया सम्हलाया, · मन्दिरका बलिदान खाणेवाला वलिअद् जातका नाम पड़ा, लोकोंनें बाल अद्शब्दको विगाड़ कर, ( बलध ) कहने लगे, उपल देव पमारकी सन्तानका श्रेष्ठी गोत्र रत्नप्रभसूरिः नें, स्थापन किया था, वो विक्रम सम्बत् १२०१ मैं चित्तोड़ मैं, राणेजीकी राणीकी, आंख अच्छी करणेसें, वैद्य पदवी पाई, उस दिन श्रेष्ठ गोत्रका नाम, वैद्य गोत्र प्रसिद्ध हुआ, रत्न प्रभसूरिका,