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महाजनवंश मुक्तावली
(गेहलड़ा गोत्र )
विक्रम सं. १५५२ खीचीगहलोत राजपूत, गिरधर सिंहके पास पिता बहुत धन छोड़गया था, लेकिन ऐश आरामदातारी चारण हूं मलोकोंको करता, सब धन उडादिया, आखिर बहुत तंग हो गया, स्यामी, जोगी, फकड्डों के पासकीमियागिरी, ढूंढ़ता फिरता है, एक दिन, खरतर गच्छाचार्य, श्री जिन हंस सरि: को, बहुत साधुओंके बीच, खजवाणा गाममें विराजमान देखं, भक्तिसें वन्दन कर बैठ गया, अवसर पाकर अपनी सब व्यवस्था कहके बोला, हे दीन दयाल, धन विना जगतमें गृहस्थीकों जीनेसें मरणा अच्छा हैं, गुरूनें कहा सत्य है ( दोहा ) चढ़ उत्तंग फिर भुपतन, सो उत्तंग नहीं कूप, जो सुखमें फिर दुखवसे, सो सुखही दुखरूप ॥ १ ॥ इसवास्ते सुपात्र विवेकीके पास धन होता है तो, वह उस वनसें स्वर्ग मोक्षकी नींव डालता है, और जो बुद्धि हीन, धन पाकर, सुकृत नहिं संचते बंबूलके वृक्षरूप कुपात्रोंको दान देते हैं, वो, इस जन्म, व परजन्ममें, दुखी होते हैं जिन मन्दिर कराणा १ जिनराजकी मूर्तियें भरवा कर अंजन शलाका कराणी, चैत्य प्रतिष्ठा कराणी, २ केवली कथित सिद्धान्त लिखाणा, पाठशाला स्थापन कराणा, विद्यार्थियोंकों सब तरहसें सहायता देणी, दीन हीनका उद्धार करणा, ऐसे सुकृतके अनेक भेद हैं, तब गिरघर बोला, महाराज अब जो मेरे पास धन हो जाय तो, ये सब काम करूं, गुरूनें कहा, जो तूं जिनधर्मी श्रावक हो जावे तो, धन फिर हो जाता है, इसने गुरूसें जिनधर्म अङ्गीकार करा, तब जिन हंस सूरिःने, वास चूर्ण मंत्र कर दिया कि, आज रात्रिको कुम्भारके ईंटके पजावेपर, ये डाल देणा, भाज्ञ योगर्से बाहिर १ हजार इटोंका छोटा पजावा दिखाई दिया, वास चूर्ण उसमें डाल दिया, वह सोनेकी होगई, चांदकी चांदनीमें, रातोरात, घरपर उठा लाया, ईंटोंके मालिककों, दुगणा मोल देकर, खुश कर दिया, गिरधरसाह के पुत्र, गेलाजी, भोला था, अब तो इन्होंके राजकाज लगगया, धर्ममें बहुत द्रव्य लगाया, वाद गेला साहकों शहरके लोकोंने कहा, चिणेका दाणा तो, सबों के घोड़े खाते हैं, आपके घोडोंको तो, मोहर खिलाणी चाहिये, तब
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