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_ महाजनवंश मुक्तावली.
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धोवण ३ इसतरह अधम जातीसे गमन करणा, ये वाम मार्ग वालोंके मतमें तीर्थयात्रा स्नान दानका फल मिलता है, इत्यादि मतके उपदेशकोंके, उपासक दया धर्म किस तरह पाल सक्ते हैं खुद स्वामी शङ्कराचार्य के शिष्य, १० नामके गुसांई बकरा भैंसामींढा मारकर मांस खाणा, मदिरा पीणा, दक्षिण हैदराबादमें हमनें, सईकड़ों गिरी पुरीयोंको आंखोसे देखा है, जब उन्होंके धर्माचार्य इस तरह काम करते थे और करते हैं तो उन्होंके उपासकोंके दिलमें दया धर्म किसने डाला है, ये बदौलत जैनाचार्योंकी है, जहां एक ब्रह्म, ऽहं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति, ऐसा श्रद्धा रखणेवालों के वास्ते न तो कोई ब्राह्मण है, न कोई चाण्डाल है, स्वामी शङ्करने काशीमें, ब्रह्मपणे जाति भिन्नता कुछ नहीं समझी, ऐसा ब्रह्म समाजी बंगाली कहते भी हैं कि, जातिका झगड़ा ऽहं ब्रह्मवाले अभी करते हैं सो बड़ी भूल है, हां अलवत्ते जैनी वैष्णव करें तो न्याय है, सो तो फक्त देखणे मात्र है जिसनें अंग्रेजी दवा सेवन करा अर्क वगैरह पिया, वह मांस मदिरा वेशक खाचुका, चाहै वैष्णव हो, चाहै जैन, बिलायतके व्यापारियोंका ढंग रमणक दिखाणा है, मगर अभ्यन्तरी परिणाम तो, दया धर्म पालणेवाले विचार करे तो, निभाव होय, स्वामी शङ्कराचार्यजीनें, सब जातीको एकाकार करणेको, जैनियोंका तीर्थ, जीरावला पार्श्वनाथका जो अब जगन्नाथजीके नामसे प्रसिद्ध है, उसको बलात्कार अपने कबजेमें करा मूर्तिपर लक्कड़का हाथ पांव कटी चोला पधराके, पार्श्व प्रभकी मूर्ती अन्दर कायम रखके, भैरवी चक्र विठलाया कि, यहां जातीकी भिन्नता नहीं रखणी, ऐमा दयानन्दजो सत्यार्थ प्रकाशमें लिखते हैं मतलब उन्होंका ऐसा था कि यहां चारों वर्ण सामिल खालेंगे तो फेर आपसमें, नौ पूरबिया, तेरह चौका नहीं करेंगे, सो दोनों पार नहीं पड़ी, दोनों खोई रेजोगिया, मुद्रा अरु आदेश, सो हाल बणगया, उहां जाके सब ब्राह्मण वैष्णव सामिल झूटन खाके जात भी खो बैठते हैं, और पुरीके बाहिर निकले फिर तो वही छूछा मौजूद है, ये जगन्नाथ पार्श्व प्रभुका मन्दिर उडिया देशके राना जो परम जैन थे, उन्होंने कराया था, जो कि