Book Title: Mahajan Vansh Muktavali
Author(s): Ramlal Gani
Publisher: Amar Balchandra

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Page 202
________________ १६६ - महाजनवंश मुक्तावली ५४ पौसरा ५५ बघेरवाल ५६ बदनौरा ५७ बरमाका ५८ बिदियादा ५९ बौगार ६० भवनगे ६१ भूगडवार ६२ महेश्वरी ६३ मेडतवाल ६४ माथुरिया ६५ मोडलिया ६७ राजपुरा ६८ राजिया ६९ लवेचू ७० लाड ७१ हरसोरा ७२ हूंबड ७३ हलद ७४ हाकरिया ७५ सांभरा ७६ सडौइया ७७ सरेडवाल ७८ सौरठवाल ७९ सेतवाल ८० सौहितवाल ८१ सुरंद्रा (२ सौनइया ८३ सौरंडिया ४ ।. . ___ इसतरह दक्षिणके ८४ जाती तथा गुजरातके ८४ जातिके वणिकोंमें कोई नाम इसमेंके नहीं दूसरे हैं ग्रंथ बढणेके भयसें यहां दरज निरुपयोगी जांणके नहीं किया है ये वणिक् जाति दयाधर्म पालते हैं इससे प्रगट प्रमाणसें सिद्ध है प्रथम सबोंका धर्म जैन था राजपूतोंमेंसें जैना चार्योनेही प्रतिबोध देकर व्यापारी कौम बणाई है जमानेके फेरफारसें अन्य २ धर्म कोई वैश्य मानने लग गये हैं मगर मांस मदिराका परित्यागपणा जो इन जातियोंमें है वह जैन धर्मकी छाप है जो धर्म जैन पालते हैं उन्होंको लौकिकवाले अभी महाजन नांमसे पहचाणते हैं जिन्होंने जैन धर्म छोड़ दिया है वो वैश्य या वणिये वजते हैं वीसे दशे पांचे अढाइये पूण तथा पचीसे इस किस्म इन्होंकी शाखायें कारण योगसें फंटती चली गई है दुनि-- यांमें सबसे बड़े राजन्य वंसी लेकिन धर्म मूर्ति दीनहीन षट् दर्शनादिक सर्व जीवोंके प्रतिपाल गुणवन्त गुणीकी कदर करणेवाले महाजन, वैश्य, वणिक्, परमेश्वरके भक्त जयवन्त रहो ये जाति बड़ी उत्तम दरजेकी सत्य धर्म पर चिरंजीवी होकर वत्तॊ श्रीरस्तुः कल्याण मस्तुः ॥ आपका शुभेच्छक जैनधर्मी पंडित । उपाध्याय रामलालगणिः ॥ . ( श्रीमद् बृहद्गच्छ खरतर पट्टावली ) १ भगवन्त श्रीबर्द्धमानस्वामी स्वयं बुद्ध केवली २४ में तीर्थकर । २ श्रीसुधर्मा स्वामी गणधर ५ में केवली सौधर्म गच्छ प्रगट। ३ श्रीजम्बूस्वामी चरम केवली यहांसें जिन कल्पादि १० वस्तु विच्छेद हुई। ४ श्रीप्रभवस्वामी श्रुत केवली १४ पूर्व धर ५ श्रीशय्यंभव सूरिःश्रुत केवली १४ पूर्व धर __

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