Book Title: Mahajan Vansh Muktavali
Author(s): Ramlal Gani
Publisher: Amar Balchandra

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Page 199
________________ महाजनवंश मुक्तावली १६३ . . फल, तुरत मुनिः फल लाध । ३ । अन्नपान घर वस्त्रसैं, शय्यासनकर भक्त, सेवा शोभी वन्दना, नवविधि पुन्य प्रशक्त । ४ । पर अवगुण देखे नहीं, निज अवगुण मन त्याग । निज शोभा मुखनाक है, समकित धरवड भाग । ५ । परनिन्दा निज श्लाघता, कर्ता जगमें बहोत निज अब गुणको जानता, विरलेई नरहोत, ६ उत्तम नरका क्रोध क्षण मध्यम . का दो पहर । अधम एक दिन रखत है, अधम नीच' नित जहर, ७ । उत्तमसाधु पात्र है, अनुव्रत मध्यम पात्र, समकित दृष्टी' जघन्य . है, भक्ति करो शुभ गात्र ८ मिथ्यादृष्टि हजारतें, एक अनुव्रतीनीक, • सहस अणुव्रतीतें अधिक, सर्व व्रती तहतीक, ९ सर्व व्रतीतें लखगुणा, तत्व विवेकी जांण, तात्विक सम कोई पात्र नहिं, यों भाखे जिन भांण, १० सत्य अहिंसा शीलवत, तजचोरी पुनलोभ, सर्व धर्मका सार यह, . स्वर्ग मुक्ति जगशोभ ११ गुजरात देशमें औदिच्य ब्राम्हनोकों हेमाचार्य उपदेशसें जैनधर्म धारण कराया, उन्होंको गुजरातमें भोजक कहते हैं, ( मारवाड़ी जिन गुण गाणेसें गंद्रप कहते हैं ) इन्होंके घर कुल तीनसौ है बहुत जगह इन्होंके सगे सोदरे विष्णुमती जोत्रिगाले वनते हैं, वो ५।५० जिन पद सीखके मारवाड़ादिक क्षेत्रमें गंद्रपोंके नांमसे नाटकादिक कर मांग खाते हैं, असली गंद्रप भोजक ओस वंश तथा श्रावकों विगर हाथ नहीं मांडते, वो भोजक जिन मन्दिरके पुजारे गुजरातमें हैं, गंद्रप त्रिकालोंकी परिक्षा, जैन कान्फरेंस धारेगी तब होगी, न मालूम कौन तो जैन धर्मी है, और कौन वैष्णव हैं, परदेशवालोंकों क्या खबर होती है । लेकिन नवकार पूछना ।

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