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महाजनवंश मुक्ताक्ली
पक्षके ३ नागोरी २ इनमें १ में भी आचार्य नहीं हैं उतराधी लोंका गच्छी जती थोड़े हैं आचार्य नहीं है तपा खरतर वड़ गच्छ कमलोंसें लोकागच्छवालोंके भाईपा है लेकिन कछमें रही जो आंचल गच्छी सन्प्रदाय वो लोकागच्छ वालोंसे भाईपा नहीं रखते हैं, कारण वो पूर्व पक्षका लाते हैं लेकिन हम तो गुजराती आचार्य नरपत चन्द्रजी पूज्याचार्यकों तथा अजयराजजी पूज्याचार्यको, तथा नागोरी प्रश्नचन्द्रजी पूज्याचार्यको, तथा रामचन्द्रजी पूज्याचार्यकों, अंतरंग भक्तिसें जिनप्रतिमाको जिन सद्रश भावमें भाव भक्तिदर्शन पूजा करते देखा है, हमारे तो इस' न्यायसें लोंकागच्छी प्राणभी प्यारे हैं मामाचारीका झगड़ा फिजूल आपसमें चलाणा नहीं अपणी २ रोटियोंके नीचे सब अङ्गार देते हैं व, देरहै हैं आत्मार्थी आत्मामाधे श्रावकोंको जिन आज्ञा मुजव उपदेश करे पक्षपात करे नहीं वह अच्छा है जो प्रश्न श्रावक अथवा जती पूछे तो पूछे का जबाब सूत्र सिद्धान्त पंचांगी में लिखेका दाग्वला दिखाके देणा जिसकी मामाचारी मूत्र सिद्धान्तकी राहमें मिलती होंगी तो वह जरूर खराही कह लायगा, क्रियावंत जरूर तपेश्वरी कह लायगा मित्रता पणे वर्त्तना जिस कामोंमे जैनधर्म जगतमें अतुल औपमा पावे उस वातोंकी खोज करणा सर्व यती समुदायका सुनिजर वांछक उपाध्याय श्री राम ऋद्धिसार गणिः।
(कच्छदेशी श्रावकोंका वृत्तांत ) - पारकर देशपाली सहरके गिरदावके महाजनलोक, सोलहसे ३५ के वर्षमें, मरुधरमें बड़ा काल पड़ा, उस वखत ५ हजार घर सिन्धुदेशमें अनाजकी मुकलायत जांणके, चले गये, उहां महनत कर गुजरान चलाणे लगे, दो तीन पीढ़ियां वीतनेपर धर्म करणी भूल गये, उपदेशक कोई था नहीं, विना खेवटिये नाव गोता खावे. इसमें तो आश्चर्य ही क्या. उहां इतना मात्र जाणते रहै के, हम जैन महाजन फलाणे २ गोत्रके हैं. तद् पीछे संबत् सतरेसयमें एक आंचल सम्प्रदायके जती, कछके राजाके पास पहुँचा, और राजासें कहा मेरा कुछ सत्कार करो तो, वणियोंकी बस्ती ला देता हूं राजानें कहा जागीर दूंगा, गुरू भाव रक्खूगा,