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महाजनवंश मुक्तावली
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सूरिःकों आचार्यपद गुरूनें दीया है और ७० ७० वर्ष पीछे वीरप्रभूके निर्वाणके ओसियांमैं अठारे गोत्रोंकी, थापना करी, भोजक लोक सम्बत् वीया वाईसा -- कहते हैं सो सच्च है, लेकिन, वीया वाईसा, राजा नंदिवर्द्धनका है, - राजा विक्रमका नहीं, सो हिसाब लिखते हैं, जब भगवान महावीरने दीक्षा ली तब संवत्सरीदान देकर, प्रथम प्रजाका, ऋण उतारकर भाई राजानन्दिवर्द्धनका सम्बत्सर चलाया, पीछै प्रभू ४२ वर्ष विद्यमान रहै और निर्वाण पाये बाद वर्ष पर १८ गोत्र हुए एवं १९२ दस वर्ष बाद आचार विचार सीखते तथा मन्दिर कराणे मैं लगा १२२ वर्षपर प्रतिष्ठा तथा साधर्मी वात्सल्य के भोजन पर, भोजक गोत्रकी थापना भई, ऐसाही प्रमाण कमला गच्छके आचार्य के पुस्तकमैं तथा हमारे बडे उपाश्रय के भण्डार के पुस्तको मैं लिखा है, तथा भगवान महावीरको मुक्ति पहुंचे को, इस ग्रंथके लिखते वक्त २४४५ का सम्बत् चल रहा है, याने अश्वपती गोत्रकी प्रथम थापनाकों भए, आज, २३७५ वर्ष बीता है, विक्रम सम्बत् १९७५ तक, अब खरतर तथा और २ आचार्य्योके बनाये भये, गोत्रका संक्षेप इतिहास दरसाते हैं,
प्रथम सुचिन्ती गोत्र
विक्रम सम्बत् १०२६ मैं श्रीजैनाचार्य वर्द्धमान सूरिः खरतर विरुद “पाणेवाले श्रीजिनेश्वर सूरिःके गुरू, विहार करते, दिल्ली पधारे, उस नगरका राजा सोनी गरा, चौहाण, उसका पुत्र बोहित्य कुमारकों, वगीचें मैं सूतेको, पेणा सांप, पी गया, नगरी मैं हाहाकार मचगया, रोते पीटते, मरा जण स्मशान मैं गाडनेको लाये, उहां बड़ वृक्ष नीचे पांचसय साधुओंसे विराजमान, आचार्यने पूंछा, ये कोण मरगया लोकोंने सब स्वरूप कहा, राजानें, विनती करी, हे सन्त महापुरुष, आपका दया धर्म सफल होय, किसी तरह, मेरा सुत सचेतन होय तो, मैं, और मेरा परिवार, आपके उपकारसें, सदा के लिए आभारी रहेंगें, इस पुत्रकी सन्तान जहां तक सूर्य चन्द्रमा पृथ्वी पर उद्योत करेंगें उहां तक आपकी सन्तानकी चरण सेवा करते रहेंगें, इस वक्त जो दुःख, मेरे तनमैं हो रहा है, सो पर