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महाजनवंश मुक्तावली.
दिया और कहा हे पुत्र ये राज्य तुम्हारा नहीं समझणा सदा मदके लिए खरतर गुरूसे कभी ऋण मुक्त नहीं हो सकोगे, अभी भी वो राजा लोक उसी मुजब पिताके वचन निर्वाह करते हैं, राना तीन पुत्रोंके परिवार सहित जैन महाजन हुआ, जिन्होंके ये तीन गोत्र गुरूनें, स्थापन करे, झांवक १ झांमड़ २ झंवक ३ ये तीनों झबुआ नगर मैं हुए, (वांठिया, लालाणी, बम्हेचा, हरखावत, साह मल्लावत,गोत्र)
विक्रम सम्बत् ११६७ मैं पमार राजपूत लालसिंहजी रणत भंवरके गढ़के राजाको श्रीजिनवल्लभ सूरिःने इस प्रकार उपदेश दिया. लालसिंहजीके पुत्र ब्रह्मदेवके जलंधरका महा भयंकर रोग उत्पन्न हुआ, उस वखत लालसिंहजीने, गुरूसें बिनती करी है गुरू, ऐसी कोई चिकित्सा करो, जिससे मेरा पुत्र आरोग्य हो जाय, तब वल्लभसूरिःने कहा, जो तुम, जैन धर्म धारण करो और मेरे श्रावक बनो तो, पुत्र अच्छा हो सकता है, तब लालसिंहजीने कबूल करा तब गुरूने, चामुण्डा देवीसें उसको आराम करवाया, तब लालसिंहनीने, सात पुत्रों समेत जैनधर्म धारण करा, उसका बडा पुत्र बडा बंठयोद्धार था, उसकी शन्तान वंठ कहलाए, ब्रह्मदेवके ब्रह्मचा कहलाये, लालसिंहजीके छोटे पुत्रके लालाणी, साहकी किताब उदयसिंह पुत्रकों भरु अच्छके नबाबनें, इनायत की, वह साह कहलाये मल्ले पुत्रकी शन्तान मल्लावत कहलाये, हरख चन्दकी शन्तान हरखावत कहलाये, वांठिये चिमनसिंह सम्बत् १५०० से मैं हुमायू बादशाहकी फोजमैं देण लेण करणे लगे, गुजरातके हमलेमैं, सोनेके बरतन फोजके लोकोंने, पीतलके भरोसे बेचा, इससे चिमनसिंह वांठियेके पास वे गिनतीका धन हो गया, इससे बहुत जगह व्यापार हो गया, चिमन सिंहने कोड़ो रुपये लगा कर बहुत जिन मन्दिरोंका उद्धार कराया, सत्रुजय तीर्थकी यात्रा जाते गांम २ प्रति आदमी प्रति, एक २ अकब्बरी मोहर, साधर्मियोंकों वांटी, पहले वंठ कहलातेथे
१ मेड़ता नगरमें बादसाह खाजेकी दरगाह जाते आया द्रव्यकी आवश्यक्ता होनेसें हरखावतकों वुला ५२ सिक्केके ६ लक्ष रुपया मांगे चिन्ताग्रस्त आनंदघनजी मुनिः पास गया मुनिःने योगसिद्धिसे ५२ सिक्के पूर्ण करे बादसाहने हरखावतको साह पद दिया।