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महाजनवंश मुक्तावली.
यज्ञमैं पशुहवन करणा इसका फल हिंसा, हिंसाका फल नरक ऐसा वानर सुणकर, जाती स्मरण ज्ञान पाया, उहां सरल भावसें मरकर, हाथीसाहका पुत्र हुआ, मैंने इसकों ज्ञानसें देखा, तब पूर्व बैरसें मारणेकों, सांपके रूपसें, 'डंक मारा, तब गुरू बोले, हे देव, किये कर्म छूटते नहीं, तेरा बदला तेनें, लेलिया, अब ये हमारा श्रावक है इसका जहर उतार दे, तत्काल नागदेवने, डंकका जहर उतार डाला, और सब लोकोंसें, देवता कहने लगा, अहो लोकों श्रीजिनदत्तसूरिः तीर्थंकरकी आज्ञा मुजब, सामाचारीके उपदेशक, पंचमहाव्रत पालक एका भवावतारी तारण तरण गणधर हैं लूणासावधान हो, सम्यक्त्वयुक्त व्रत पच्चखांण करा, गुरूने लूणिया गोत्र थापन करा, सं. ११९२ मूलगच्छ खरतर ],
[ डोसी सोनीगरा गोत्र ]
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सम्बत् ११९७ में में विक्रमपुर जो कि भाटीपे मैं है उहांके ठाकुर सोनीगरा राजपूत, हीरसेन, इन्होंने क्षेत्रपालकी मानता करी, मेरे पुत्र होगा तो तुम्हारे निमित्त सवालक्ष मोहरें लगाऊंगा, देव वश, राणीके पुत्र हुआ, खेतलनांम दिया, अनुक्रमसें सात आठ वर्षका वह बालक हुआ, ठाकुर जात देणेकी चिन्तामें, मगर सवालक्ष मोहरोंकी जोड़ वणे नहीं, तव क्षेत्रपाल उपद्रक करने लगा कहीं अंगार लगा देवे, कभी राजा राणीका शिर आपसमें लडा देवे, कभी गहणा छिपा देवे, कभी राणीकों छिपा देवे, कभी राजाके संधि २ में दर्द कर देवे, खेतल कुमार उन्मत्त हो गया, आठ २ दिन भोजन नहीं करे, विगर पढ़ा शास्त्र पंडितोंसे संवाद करे, हजार मनुष्योंसे नहीं उठणेका पदार्थ उठा लेवे इस वक्त श्री जिनदत्त सूरिः विक्रमपुर पधारे, ठाकुरनें महिमा सुण बड़े महोत्सवसें गुरूको नग्रमें पधराये, खेतलकुमार गुरू कों. देखते ही बोल उठा हे परमगुरू, इस ठाकुरनें, मेरी बोलवा करके, पजा नहीं करी, इससे ये दोषी है, गुरूनें कहा हे ठाकुर, जो तुम सहकुटुम्ब, जैन धर्म धारण करो, तो में संकट काट देता हूं, क्षेतल क्षेतल कुमार पृथ्वीसें कूद २ कर ५० हाथ ऊंचे छत्तपर जा बैठता है, फेर कूदकर डमरू त्रिसल लेकर रु पांवमें बांध, गुरूके सन्मुख नाचता है, ये चमत्कार देख बहुत लोक
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