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देते हैं, तब यो ता पूर्वक, पत्र लिखा, बना, शत्रुजय का विधी पूर्वक,
महाजनवंश मुक्तावली मैं भेजे, तब गुजरात मैं, श्रीजिनवल्लभ सूरिःको, चमत्कारी पुरुष जानके, सब हकीकत कह सुनाई, तब गुरूने कहा, जावो तुम तुम्हारे रानासे पूछो, जो अगर जैनधर्म अंगीकार करके महाजन बणोतो, हम शत्रुनय करादेते हैं, तब वो, सुभट, शीघ्र गतिसें जाकर, राजाकों खबर दी, राजा दोनों भाइयोंनें, नम्रता पूर्वक, पत्र लिखा, वह पुरुष पत्र लेकर, उहां पहुंचा तत्र श्रीजिन वल्लभसूरिःने, बहुफणा, पार्श्वनाथ, शत्रुजय कर मंत्र दिया,
और सब विधि बतलाई, वह पुरुषनें जोवन सच्चू राजाकों विधी पूर्वक, मंत्र दिया, वह एकाग्र मनसे साढ़े बारह हजार जप करके, कही विधीसे, घोड़े असवार होकर सब सेन्या. मैं जा खड़े रहै, इन्होंको आया देख शत्रुलोक मार २ करते दौड़े इन्होंने सबके शस्त्र छीन लिये, सबोंको जीत लिये तब सबने हाथ जोड़ माफी मांगी, ये तारीफ सुण, जयचन्द राठौड़ने इन दोनोंको, सत्कार सन्मानसें बुलाया, सब हकीकत पूछी, इन्होंने गुरू महाराजकी सिद्धी बतलाई, तब राजानें अपने सामन्त वणाकर, मुल्क पट्टा इनायत कर, अपने देश जानेकी आज्ञा दी, पीछे आते गुरूकी तलाश करते, खबर पाई के, श्रीजिन वल्लभ सूरिःजी, स्वर्गवास हो गये, और श्रीनिन दत्तसूरिःभी, बड़े जागती जोत उन्होंके पट्ट प्रभाकर है, तब दोनों भाई, जिन दत्तसूरिःजीके, चरणों में गिरे, और बोले आज हमारो वापना, हमारी रक्षा अब कोण करेगा, गुरूनें कहा, तुम जिनधर्म अंगीकार करो तो, गुरू स्वर्गवासी सदा तुह्मारी सहायता करेंगे, इन्होंने श्रीजिन दत्तसूरिःजीसें जिनधर्मका तत्व समझके, श्रीजिनधर्मका सम्यक्त्व युक्त बारह व्रत लिया, गुरूने बहुफणापार्श्वनाथके मंत्रसें सिद्धी पाई इसवास्ते बहुफणा गोत्र उन्होंने कहा बापना इसवास्ते. दूसरा इस गोत्रका नाम वापना भी प्रसिद्ध हुआ रत्न प्रभसूरिःने
जो अठारह गोत्रोंमैं बाफणा गोत्र बणाया था, वह अलग है, लेकिन '' वह भी पमार वंशी थे, इसवास्ते वेभी चैत्यवासी अपणे गच्छकों जाण
कर, श्रीजिन दत्तसूरिःजीके श्रावक हो गये जोबन सच्चके ३७ पुत्र हुए, उन मैंसें सांवतजी नामके जोबन राजाके पुत्र राजा अजय पालके