Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura

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Page 17
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो ७ ६. 'कदि च पविसंति कस्स श्रावलियं' इच्चेदेण वि विदियसुत्तावयवेण पयडिउदयो सप्पभेदो समुद्दिहो। किं कारणं ? कदि च केत्तियानो खलु पयडीयो कस्स जीवस्स प्रावलियमुदयावलियम्भंतरमुदीरणाए विणा द्विदिक्खएण पविसंति त्ति पुच्छावलंबणादो। अथवा उदयावलियपविट्ठोदयाणुदयपयडीअो घेत्तूण पवेससरिणदो अस्थाहियारो एदेण सुत्तावयवेण सूचिदो त्ति दट्ठव्यो; चुरिणसुत्तणिबद्धत्तपरूवणाए सवित्थरमुवरि समुवलंभादो । जइ एवं; वेदगे ति अणियोगद्दारे उदयो च उदीरणा चेदि दोएहमत्थाहियाराणं पुच्चमभुवगर्म कादण संपाहि तदुभयवदिरित्तपवेसपरूवणावलंबणे सुत्तयारस्स पइण्णादत्थपरिच्चागदोसो पसज्जइ त्ति ? ए एस दोसो, केण वि पयारेण तस्स वि उदयंतब्भावदंसणादो। तदो पयडिउदयो पयडिपवेसो चेदि एदे दोरिण अणियोगा 'कदि च पविस्संति कस्स श्रावलियं' इच्चेदेण सुत्ताक्यवेण संगहिदा ति दट्ठन्वं । ७. एवं गाहापुब्बद्ध पडिबद्धाणं पयडिउदयोदीरणाणं णिरहेउत्तगिरायरणमुहेण सहेउत्तपदुप्पायगडमार्गदसाझपच्छिमसमायसोवासोपापासन पोग्गल-डिदि-विवागोदयखओ दु ।' एतदुक्तं भवति–खेत-भव-काल-पोग्गले समस्सिऊण जो द्विदिविवागो उदयक्खयो च सो जहाकममुदीरणा उदयो च भण्णइ इसलिए प्रकृतिबदीरणा समस्त ही इस बीजपदमे अन्तर्निहित है ऐसा जानना चाहिए। ....६६. 'कदि च पविसंति कस्स श्रावलियं' इस दूसरे सूत्रावयवके द्वारा भी अपने उत्तर भेदोंके साथ प्रकृतिउदयका कथन किया गया है, क्योंकि इसमें कदि च' अर्थात् कितनी प्रकृतियाँ किस जीवके 'आरलियं. अर्थात उदगावलिके भीतर उदीरणाके बिना स्थितिका क्षय होनेसे प्रवेश करती हैं इसप्रकार पृच्छाका अवलम्बन लिया है। अथवा उदयावलिके भीतर विष्ट हुई उदयप्रकृतियों और अनुदयप्रकृतियोंको ग्रहण कर प्रवेश संज्ञावाला अधिकार इस सूत्रा. वयवके द्वारा सूचित किया गया है ऐसा प्रकृतमें जानना चाहिए, क्योंकि चूर्णिसूत्र में निबद्ध होकर उक्त प्ररूपणा विस्तारके साथ आगे उपलब्ध होती है। शंका--यदि ऐसा है तो वेदक इस अनुयोगद्वारमें उदय और उदीरणा इन दो अनु. योगद्वारीको पहले स्वीकार करके अब इन दोनों अर्थाधिकारोंसे भिन्न प्रवेशप्ररूपणावाले अर्थाधिकारके कथनका अवलम्बन लेने पर सूत्रकारको प्रतिक्षात अर्थका त्याग करनेका दोष लगता है ? समाधान---यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि किसी भी प्रकारसे उसका भी उदयके भीतर अन्तर्भाव देखा जाता है। इसलिए प्रकृतिउदय और प्रकृतिप्रवेश ये दो अनुयोगद्वार 'कदि च पविसंति कस्स आवलियं' इस सूत्रावयवके द्वारा संग्रहीत किये गये हैं ऐसा यहाँ जानना चाहिए। ६. इसप्रकार गाथाके पूर्वाधमें जो प्रकृतिउदय और प्रकृतिउदीरणा प्रतिबद्ध हैं उनके निरहेतुकपनेके निराकरणद्वारा सहेतुकपनेका कथन करने के लिए गाथाके 'खेत्त-भव काल-पोग्गलहिदिविवागोदयखश्नो दु' इस पश्चिमाका अवतार हुआ है। उक्त कथनका यह तात्पर्य है कि क्षेत्र, भव, काल और पुलोंका आश्रय लेकर जो स्थितिविपाक और उदयत्तय होता है उसे

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