Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 13
________________ गाथा संख्या २२२ २२३ २२४ २२५ २२६ २२७ २२८ २२६ २३० २३१ २३२ २३३ २३४ २३५ २३६ २३७ २३८ २३६ २४० २४१ २४२ २४३, २४४ २४५ २४६ २४७ से २४६ २५० से २५२ २५३ Jain Education International [१०] विषय द्रव्यों के कार्यकारणभावका निरूपण वस्तुके तीनों कालमें ही कार्यकारणभावका निश्चय वस्तु अनंतधर्मस्वरूप है अनेकांतात्मक वस्तु अर्थ क्रियाकारी है सर्वथा एकान्त वस्तुके कार्यकारीपणा नहीं है सर्वथा नित्य एकान्त में अर्थक्रियाकारीपणाका अभाव पुनः क्षणस्थायी के कार्यका अभाव अनेकान्तवस्तुके कार्यकारणभाव बनता है। पूर्वोत्तरभावके कारणकार्य्यभावको दृढ़ करते हैं जीवद्रव्यके भी वैसे ही अनादिनिधन कार्यकारण भाव सिद्ध करते हैं जीवद्रव्य अपने द्रव्यक्षेत्रकालभावमें रहता हुआ। ही नवीन पर्यायरूप कार्यको करता है अन्यरूप होकर कार्य करने में दोष सर्वथा एकस्वरूप माननेमें दोष अणुमात्र तत्त्वको माननेमें दोष द्रव्यके एकत्वपणेका निश्चय द्रव्य के गुणपर्यायस्वभावपणा द्रव्यों के व्यय उत्पाद क्या हैं ? द्रव्यके ध्रुवपणाका निश्चय द्रव्यपर्यायका स्वरूप गुणाका स्वरूप गुणभास विशेषरूप से उत्पन्न वा नष्ट होता है गुणपर्यायोंका एकपणा है वही द्रव्य है द्रव्यों में पर्यायें विद्यमान उत्पन्न होती हैं या अविद्यमान ? द्रव्य पर्यायोंके कथंचित् भेद कथंचित् अभेद द्रव्य पर्यायके सर्वथा भेद मानने में दोष विज्ञानको ही अद्वैत कहने और बाह्य पदार्थ न मानने में दोष नास्तित्ववादी महा झूठा है सामान्यज्ञानका स्वरूप पृष्ठ संख्या For Private & Personal Use Only १०१ १०१ १०१ १०२ १०२ १०२ १०३ १०३ १०३ १०४ १०४ १०५ १०५ १०५ १०६ १०६ १०७ १०७ १०७ १०८ १०८ १०६ ११० ११० ११० १११ ११३ www.jainelibrary.org

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