Book Title: Karmaprakruti
Author(s): Abhaynanda Acharya, Gokulchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 17
________________ [१६ मप्रकृतिः [१२. गोत्रस्य लक्षणम् उदाहरणं ] उच्चनीचतुलनामा नेपाल इति गोकुम्भकारबत् । [ १३. अन्तरायस्प लक्षणम् उदाहरणं च ] बामाविविघ्नं कर्तुमन्तरं पातुपात्रादीनां मध्यमेतीत्यन्तरायो भाडारिकवत् । उत्तरप्रकृतयः [ १४. उत्तरप्रकृतिनां भेदाः ] उत्तरप्रकृतयोप्रवत्वारिंशदुत्तरशतम् । तद्यथा ज्ञानातरणीयम् [ १५. ज्ञानावर गोयस्य पञ्च प्रकृतयः ] मतिज्ञानाबरणीयं श्रुतज्ञानावरणीयमवधिमानावरणीयं मनःपर्यय मानावरणीयं केवलज्ञानावरणीयं चेति ज्ञानावरणीयस्य प्रकृतयः पञ्च। १२. गोत्र कर्मका लक्षण और उदाहरण कम्भकारको तरह जो आत्माको उच्च अथवा नीच कुलके रूपमें व्यवहृत कराता है, वह गोत्र कर्म है । १३. अन्तराय कर्मका लक्षण और उदाहरण भण्डारीको तरह जो दाता और पात्र आदिके वोचमें आकर आत्मा के दान आदि में विघ्न डालता है, वह अन्तराय कर्म है । १४. उत्ता प्रकृतियोंको भेद उत्तर प्रकृतियाँ एक सौ अड़तालीस हैं ! वे इस प्रकार हैं(१५. शानावरणीयी पाँच प्रकृतियाँ मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनापर्ययशानावरणीय तथा केवलज्ञानावरणीय, ये पांच ज्ञानावरणीयकी प्रकृतियाँ हैं।

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